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________________ 32] [ स्थानाङ्गसूत्र अहवा-पच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–दोहं वेगे अद्ध पच्चक्खाति, रहस्सं वेगे अद्ध पच्चक्खाति। प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है. कुछ लोग मन से प्रत्याख्यान (अशुभ कार्य का त्याग) करते हैं और कुछ लोग वचन से प्रत्याख्यान करते हैं। अथवा प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है-कुछ लोग दीर्घकाल तक प्रत्याख्यान करते हैं और कुछ लोग अल्पकाल तक प्रत्याख्यान करते हैं (36) / व्याख्या गर्दा के समान समझना चाहिए। विद्या-चरण-पद ४०-दोहि ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीयं अणवयग्गं दोहमद्ध चाउरत संसारकतारं वीतिवएज्जा, त जहा—विज्जाए चेव चरणेण चेव / विद्या (ज्ञान) और चरण (चारित्र) इन दोनों स्थानों से सम्पन्न अनगार (साधु) अनादिअनन्त दीर्घ मार्ग वाले एवं चतुर्गतिरूप विभागवाले संसार रूपी गहन वन को पार करता है, अर्थात् मुक्त होता है (40) / आरम्भ-परिग्रह-अपरित्याग पद 41 - दो ठाणाई अपरियाणेत्ता पाया णो केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, त जहाप्रारंभे चेव, परिमाहे चेव / ४२-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता प्राया णो केवलं बोधि बुझज्जा, त जहाप्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव / ४३–दो ठाणाई अपरियाणेत्ता पाया णो केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइज्जा, तजहा–प्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव / ४४-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता पाया णो केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, तं जहा---प्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४५-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, तजहा-आरंभे चैव, परिग्गहे चेव / ४६-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहा-प्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव / 47 -दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, तजहा-प्रारंभ चेव, परिग्गहे चेव / ४८-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, त जहाप्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव / ४६-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता पाया णो केवलं प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा, तंजा -प्रारंभे चव. परिगडे चेव / ५०-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता पाया णो केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, त जहा–प्रारंभ चेव परिग्गहे चव / ५१—दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं केवलणाण उप्याडज्जा, त जहा-आर चव, परिम्गहे चव / प्रारम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े विना आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता (41) / प्रारम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध बोधिका अनुभव नहीं कर पाता (42) / प्रारम्भ और परिग्रहइन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा मुण्डित होकर घर से (ममता-मोह छोड़ कर) अनगारिता (साधुत्व) को नहीं पाता (43) / प्रारम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जाने और छोड़े विना आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त नहीं होता (44) / प्रारम्भ और परिग्रह-इन दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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