________________ 28] [ स्थानाङ्गसूत्र की कही गई है-जीव-प्राज्ञापनी क्रिया (जीव के विषय में आज्ञा देने से होनेवाली क्रिया) और अजीव-प्राज्ञापनी क्रिया (अजीव के विषय में आज्ञा देने से होने वाली क्रिया) (30) / वैदारिणी क्रिया दो प्रकार की कही गई है—जीववैदारिणी क्रिया (जीव के विदारण से होने वाली क्रिया) और अजीववैदारिणी क्रिया (अजीव के विदारण से होनेवाली क्रिया) (31) / ३२-दो किरियानो पण्णत्ताओ, तं जहा-प्रणाभोगवत्तिया चेव, प्रणवकखवत्तिया चेव / ३३--प्रणाभोगवत्तिया किरिया दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा–प्रणाउत्तपाइयणता चेव, प्रणाउत्तपमज्जगता चेव / ३४--प्रणवखवत्तिया किरिया दुविहा पण्णत्ता, त जहा- प्रायसरीरप्रणवकखवत्तिया चेव, परसरोरप्रणवकंखवत्तिया चेव / पुनः क्रिया दो प्रकार की कही गई है—अनाभोगप्रत्यया क्रिया (असावधानी से होने वाली क्रिया) और अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया (आकांक्षा या अपेक्षा न रखकर की जाने वाली क्रिया) (32) / अनाभोगप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है-अनायुक्त-पादानता क्रिया (असावधानी से वस्त्र आदि का ग्रहण करना) और अनायुक्त प्रमार्जनता क्रिया (असावधानी से पात्र आदि का प्रमार्जन करना) (33) / अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है-अात्मशरीर-अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया (अपने शरीर की अपेक्षा न रख कर की जाने वाली क्रिया) और पर-शरीर-अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया (दूसरे के शरीर की अपेक्षा न रख कर की जाने वाली क्रिया) (34) ३५-दो किरियानो पण्णत्तायो, तं जहा-पेज्जवत्तिया चेव, दोसवत्तिया चेव / ३६-पेज्जवत्तिया किरिया दुविहा पण्णता, तं जहा-मायावत्तिया चेव, लोभवत्तिया चेव / ३७-दोसवत्तिया किरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहां-कोहे चेव, माणे चेव / पुनः क्रिया दो प्रकार की कही गई है। प्रेयःप्रत्यया क्रिया (राग के निमित्त से होने वाली क्रिया) और द्वषप्रत्यया क्रिया (द्वष के निमित्त से होने वाली क्रिया) (35) / प्रेयःप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है--मायाप्रत्यया क्रिया (माया के निमित्त से होने वाली राग क्रिया) और लोभ-प्रत्यया क्रिया (लोभ के निमित्त से होने वाली राग क्रिया) (36) / द्वषप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है---क्रोधप्रत्यया क्रिया (क्रोध के निमित्त से होने वाली द्वषक्रिया) और मानप्रत्यया क्रिया (मान के निमित्त से होने वाली द्वषक्रिया) (37) / विवेचन-हलन-चलन रूप परिस्पन्द को क्रिया कहते हैं। यह सचेतन और अचेतन दोनों प्रकार के द्रव्यों में होती है, अतः सूत्रकार ने मूल में क्रिया के दो भेद बतलाये हैं। किन्तु जब हम आगम सूत्रों में एवं तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में वरिणत 25 क्रियाओं की ओर दृष्टिपात करते हैं, तब जीव के द्वारा होनेवाली या जीव में कर्मबन्ध कराने वाली क्रियाएं ही यहाँ अभीष्ट प्रतीत होती हैं, अतः द्वि-स्थानक के अनुरोध से अजीवक्रिया का प्रतिपादन युक्ति-संगत होते हुए भी इस द्वितीय स्थानक में वर्णित शेष क्रियानों में पच्चीस की संख्या पूरी नहीं होती है। क्रियाओं की पच्चीस संख्या की पूर्ति के लिए तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में वर्णित क्रियाओं को लेना पड़ेगा। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साम्परायिक आस्रव के 36 भेद मूल तत्त्वार्थसूत्र में कहे गये हैं, किन्तु उनकी गणना तत्त्वार्थभाष्य और सर्वार्थसिद्धि टीका में ही स्पष्ट रूप से सर्वप्रथम प्राप्त होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org