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________________ द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश द्विपदावतार-पद १–जदस्थि णं' लोगे तं सन्वं दुपयोप्रारं, तं जहा--जीवच्चेव, अजीवच्चेव / 'तसच्चेव, थावरच्चेव'। सजोणियच्चेव, अजोणियच्चेव। साउयच्चेव, अणाउयच्चेव। सइंदियच्चेव, अणिदियच्चेव / सवेयगा चेव, अवेयगा चेव / सरूवी चेव, अस्वी चेव / सपोग्गला चेव / अपोग्गला चैव / संसारसमावण्णगा चेव, असंसारसमावण्णगा चेव / सासया चेव, प्रसासया चेव / आगासे चेव, गोमागासे चेव / धम्मे चेव, अधम्मे चेव / बंधे चेव, मोक्खे चेव / पुण्णे चेव, पावे चेव / पासवे चेव, संवरे चेव / वेयणा चेव, णिज्जरा चेव / लोक में जो कुछ है, वह सब दो दो पदों में अवतरित होता है / यथा-जीव और अजीब / त्रस और स्थावर / सयोनिक और अयोनिक / आयु-सहित और आयु-रहित। इन्द्रिय-सहित और इन्द्रिय-रहित / वेद-सहित और वेद-रहित। रूप-सहित और रूप-रहित / पुद्गल-सहित और पुद्गल-रहित / संसार-समापन्न (संसारी) और असंसार-समापन्न (सिद्ध)। शाश्वत (नित्य) और अशाश्वत (अनित्य)। आकाश और नोग्राकाश / धर्म और अधर्म। बन्ध और मोक्ष / पुण्य और पाप / प्रास्रव और संवर / वेदना और निर्जरा (1) / विवेचन-इस लोक में दो प्रकार के द्रव्य हैं-सचेतन-जीव और अचेतन-अजीव / जीव के दो भेद हैं-स और स्थावर / जिनके त्रस नामकर्म का उदय होता है, ऐसे द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं और जिनके स्थावर नामकर्म का उदय होता है ऐसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक जीव स्थावर कहलाते हैं / योनि-सहित संसारी जीवों को सयोनिक और योनि-रहित सिद्ध जीवों को अयोनिक कहते हैं। इसी प्रकार आयु और इन्द्रिय सहित जीवों को सेन्द्रिय संसारी और उनसे रहित जीव अनिन्द्रिय मुक्त कहलाते हैं। वेदयुक्त जीव सवेदी और वेदातीत दशम आदि गुणस्थानवर्ती तथा सिद्ध अवेदी कहलाते हैं। पुद्गलद्रव्य रूप-सहित है और शेष पांच द्रव्य रूप-रहित हैं। संसारी जीव पुद्गलसहित हैं और मुक्त जीव पुद्गल-रहित हैं। जन्ममरणादि से रहित होने के कारण सिद्ध शाश्वत हैं क्योंकि वे सदा एक शुद्ध अवस्था में रहते हैं और संसारी जीव अशाश्वत हैं क्योंकि वे जन्म, जरा, मरणादि रूप से विभिन्न दशाओं में परिवर्तित होते रहते हैं। जिसमें सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वरूप से विद्यमान हैं, उसे आकाश कहते हैं। नो शब्द के दो अर्थ होते हैं-निषेध और भिन्नार्थ / यहां पर नो शब्द का भिन्नार्थ अभीष्ट है, अतः आकाश के सिवाय शेष पांच द्रव्यों को नो-आकाश जानना चाहिए। धर्म ग्रादि शेष पदों का अर्थ प्रथम स्थान में 'अस्तिवाद पद' के विवेचन में किया गया है। उक्त सूत्र-संदर्भ में प्रतिपक्षी दो दो पदों का निरूपण किया गया है। यही बात आगे के सूत्रों में भी जानना चाहिए, क्योंकि यह स्थानाङ्ग का द्विस्थानक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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