________________ दशम स्थान ] [706 5., अपरिश्रावी आलोचना करने वाले के दोष दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। 7. निर्यापक-बड़े प्रायश्चित्त को भी निर्वाह कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो। 8. अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने के अपायों-दुष्फलों को बताने वाला हो। है. प्रियधर्मा-धर्म से प्रेम रखने वाला हो। 10. दृढधर्मा-आपत्तिकाल में भी धर्म में दृढ़ रहने वाला हो (72) / प्रायश्चित्त-सूत्र ७३-दसविधे पायच्छित्ते, तं जहा--पालोयणारिहे, (पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तबारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे), प्रणवढप्पारिहे, पारंचियारिहे। प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आलोचना के योग्य-गुरु के सामने निवेदन करने से ही जिसकी शुद्धि हो / 2. प्रतिक्रमण के योग्य–'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' इस प्रकार के उच्चारण से जिस दोष की शुद्धि हो। 3. तदुभय के योग्य–जिसकी शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो। 4. विवेक के योग्य—जिसकी शुद्धि ग्रहण किये गये अशुद्ध भक्त-पानादि के त्याग से हो / 5. व्युत्सर्ग के योग्य-जिस दोष की शुद्धि कायोत्सर्ग से हो। 6. तप के योग्य-जिस दोष की शुद्धि अनशनादि तप के द्वारा हो / 7. छेद के योग्य-जिस दोष की शुद्धि दीक्षा-पर्याय के छेद से हो / 8. मूल के योग्य-जिस दोष की शुद्धि पुनः दीक्षा देने से हो। 6. अनवस्थाप्य के योग्य-जिस दोष की शुद्धि तपस्या पूर्वक पुनः दीक्षा देने से हो। 10. पारांचिक के योग्य-भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक एक वार संघ से पृथक् कर पुनः दीक्षा देने से जिस दोष की शुद्धि हो (73) / मिथ्यात्व-सूत्र ७४-दसविधे मिच्छत्ते पण्णते, तं जहा–अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसपणा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु प्रसाहसण्णा, अमत्तेसु मत्तसण्णा, मुत्तेसु प्रमुत्तसपणा / मिथ्यात्व दश प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अधर्म को धर्म मानना, 2. धर्म को अधर्म मानना, 3. उन्मार्ग को सुमार्ग मानना, 4. सुमार्ग को उन्मार्ग मानना, 5. अजीवों को जीव मानना, 6. जीवों को अजीव मानना, 7. असाधूओं को साधु मानना, 8. साधुओं को असाधु मानना, 6. अमुक्तों को मुक्त मानना, 10. मुक्तों को अमुक्त मानना (74) / तीर्थकर-सूत्र ७५-चंदप्पभे णं अरहा दस पुवसतसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध (बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्ख) पहीणे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org