________________ दशम स्थान ] [707 6. प्रदोषप्रतिसेवना-द्वष-वश जीव-घात आदि करना / 10. विमर्शप्रतिसेवना-शिष्यों की परीक्षा के लिए किसी अयोग्य कार्य को करना / इन प्रतिसेवनाओं के अन्य उपभेदों का विस्तृत विवेचन निशीथभाष्य आदि से जानना चाहिए (66) / आलोचना-सूत्र ७०--दस आलोयणादोसा पण्णत्ता.तं जहा आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिट्ठबायरं च सुहुमं वा / छण्णं . सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेबी // 1 // आलोचना के दश दोष कहे गये हैं / जैसे 1. प्राकम्प्य या आकम्पित दोष, 2. अनुमन्य या अनुमानित दोष, 3. दृष्टदोष, 4. बादरदोष, 5. सूक्ष्म दोष, 6. छन्न दोष, 7. शब्दाकुलित दोष, 8. बहुजन दोष, 6. अव्यक्त दोष, 10. तत्सेवी दोष / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में पालोचना के दश दोषों की प्रतिपादक जो गाथा दी गई है, वह निशीयभाष्य चूणि में मिलती है और कुछ पाठ-भेद के साथ दि० ग्रन्थ मूलाचार के शीलगुणाधिकार में तथा भगवती आराधना में मूल गाथा के रूप में निबद्ध एवं अन्य ग्रन्थों में उद्धृत पाई जाती है। दोषों के अर्थ में कहीं-कहीं कुछ अन्तर है, उस सब का स्पष्टोकरण श्वे० व्याख्या० नं०१ में और दि० व्याख्या नं० 2 में इस प्रकार है(१) 1. प्राकम्प्य या आकम्पित दोष-सेवा आदि के द्वारा प्रायश्चित्त देने वाले की आराधना कर आलोचना करना, गुरु को उपकरण देने से वे मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार कर उपकरण देकर पालोचना करना। 2. कंपते हुए आलोचना करना, जिससे कि गुरु अल्प प्रायश्चित्त दें / (2) 1. अनुमान्य या अनुमानितदोष–'मैं दुर्बल हूं. मुझे अल्प प्रायश्चित्त देव', इस भाव से अनुनय कर आलोचना करना। 2. शारीरिक शक्ति का अनुमान लगाकर तदनुसार दोष-निवेदन करना, जिससे कि गुरु उससे अधिक प्रायश्चित्त न दें। (3) 1. यदृष्ट-गुरु आदि के द्वारा जो दोष देख लिया गया है, उसी को आलोचना करना, अन्य अदृष्ट दोषों की नहीं करना। 2. दूसरों के द्वारा अदृष्ट दोष छिपाकर दृष्ट दोष की ग्रालोचना करना। 1. बादर दोष-केवल स्थूल या बड़े दोष की आलोचना करना। 2. सूक्ष्म दोष न कहकर केवल स्थूल दोष की आलोचना करना। 1. सूक्ष्म दोष-केवल छोटे दोषों को आलोचना करना / 2. स्थूल दोष कहने से गुरुप्रायश्चित्त मिलेगा, यह सोचकर छोटे-छोटे दोषों को __ आलोचना करना। 1. छत्र दोष-इस प्रकार से आलोचना करना कि गुरु सुनने न पावें / 2. किसी बहाने से दोष कह कर स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना, अथवा गुप्त रूप से एकान्त में जाकर गुरु से दोष कहना, जिससे कि दूसरे सुन न पावें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org