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________________ 702] [ स्थानाङ्गसूत्र ४३---सवेवि णं रतिकरपन्वता दस जोयणसताई उड्ढं उच्चत्तेणं, दसगाउयसताई उव्वेहेणं, सम्वत्थ समा झल्लरिसंठिता, दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता। सभी रतिकर पर्वत दश सौ (1000) योजन ऊंचे, दश सौ गव्यति गहरे, सर्वत्र समान, झल्लरी के आकार के और दश हजार योजन विस्तार वाले कहे गये हैं (43) / ४४–रुयगवरे णं पन्वते दस जोयणसयाइं उन्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साई विखंभेणं, उरि दस जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ते। रुचकवर पर्वत दश सौ (1000) योजन गहरे, मूल में दश हजार योजन विस्तृत और ऊपर दश सौ (1000) योजन विस्तार वाले कहे गये हैं (44) / 45 -एवं कुडलवरेवि / इसी प्रकार कूण्डलवर पर्वत भी रुचकवर पर्वत के समान जानना चाहिए (45) / द्रव्यानुयोग-सूत्र ४६–दसविहे दवियाणुप्रोगे पण्णत्ते, तं जहा-दवियाणुप्रोगे, माउयाणुप्रोगे, एगढियाणुप्रोगे, करणाणुप्रोगे, अपितणप्पिते, भाविताभाविते, बाहिराबाहिरे, सासतासासते, तहणाणे, प्रतहणाणे / द्रव्यानुयोग दश प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. द्रव्यानुयोग, 2. मातृकानुयोग, 3. एकाथिकानुयोग, 4. करणानुयोग, 5. अर्पितानपितानुयोग, 7. भाविताभावितानुयोग, 7. बाह्याबाह्यानुयोग, 8. शाश्वताशाश्वतानुयोग, 6. तथाज्ञानानुयोग, 10. अतथाज्ञानानुयोग / विवेचन--जीवादि द्रव्यों की व्याख्या करने वाले अनुयोग को द्रव्यानुयोग कहते हैं / गुण और पर्याय जिसमें पाये जावें, उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य के सहभावी ज्ञान-दर्शनादि धर्मों को गुण और मनुष्य, तिथंचादि क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहते हैं। द्रव्यानुयोग में इन गुणों और पर्यायों वाले द्रव्य का विवेचन किया गया है। 2. मातृकानुयोग--इस अनुयोग में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप मातृका पद के द्वारा द्रव्यों का विवेचन किया गया है। 3. एकाथिकानुयोय—इसमें एक अर्थ के वाचक अनेक शब्दों की व्याख्या के द्वारा द्रव्यों का विवेचन किया गया है / जैसे—सत्त्व, भूत, प्राणी और जीव, ये शब्द एक अर्थ के वाचक हैं, आदि / 4. करणानुयोग-द्रव्य की निष्पत्ति में साधकतम कारण को करण कहते हैं। जैसे घट की निष्पत्ति में मिट्टी, कुम्भकार, चक्र आदि / जीव की क्रियाओं में काल, स्वभाव, नियति, आदि साधक हैं। इस प्रकार द्रव्यों के साधकतम कारणों का विवेचन इस करणानुयोग में किया गया है। 5. अपितानर्पितानुयोग–मुख्य या प्रधान विवक्षा को अर्पित और गौण या अप्रधान विवक्षा को अपित कहते हैं / इस अनुयोग में सभी द्रव्यों के गुण-पर्यायों का विवेचन मुख्य और गौण की विवक्षा से किया गया है। 6. भाविताभावितानुयोग-इस अनुयोग में द्रव्यान्तर से प्रभावित या अप्रभावित होने का विचार किया गया है / जैसे-सकषाय जीव अच्छे या बुरे वातावरण से प्रभावित होता है, किन्तु अकषाय जीव नहीं होता, आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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