________________ 700 ] [ स्थानाङ्गसूत्र लवणसमुद्र-सूत्र ३२-लवणस्स णं समुहस्स दस जोयणसहस्साई गोतिथविरहिते खेत्ते पण्णत्ते / लवणसमुद्र का दश हजार योजन क्षेत्र गोतीर्थ-रहित (समतल) कहा गया है (32) / ३३-लवणस्स णं समुदस्स दस जोयणसहस्साई उदगमाले पण्णते। लवणसमुद्र की उदकमाला (वेला) दश हजार योजन चौड़ी कही गई है (33) / विवेचन—जिस जलस्थान पर गाएं जल पीने को उतरती हैं, वह क्रम से ढलानवाला आगेआगे अधिक नीचा होता है, उसे गोतीर्थ कहते हैं। लवणसमुद्र के दोनों पावों में 5-65 हजार योजन तक पानी गोतीर्थ के आकार है। बीच में दश हजार योजन तक पानी समतल है, उसमें ढलान नहीं है, उसे 'गोतीर्थ-रहित' कहा गया है। जल की शिखर या चोटी को उदकमाला कहते हैं। यह समुद्र के मध्यभाग में होती है / लवण समुद्र की उदकमाला दश हजार योजन चौड़ी और सोलह हजार योजन ऊंची होती है (33) / पाताल-सूत्र ३४-सवेवि णं महापाताला दसदसाई जोयणसहस्साइं उन्हेणं पण्णत्ता, मूले दस जोयणसहस्साइं विवखंभेणं पणता, बहुमज्झदेसभागे एगपसियाए सेढीए दसदसाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता, उरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता / तेसि णं महापातालाणं कुड्डा सववइरामया सव्वत्थ समा दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता / सभी महापाताल (पातालकलश) एक लाख योजन गहरे कहे गये हैं। मूल भाग में वे दश हजार योजन विस्तृत कहे गये हैं। मूल भाग के विस्तार से दोनों ओर एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बहमध्यदेश भाग में एक लाख योजन विस्तार कहा गया है। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार दश हजार योजन कहा गया है / उन पातालों की भित्तियां सर्ववज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दश हजार योजन विस्तार वाली कही गई हैं (34) / ३५-सवेवि णं खुद्दा पाताला दस जोयणसताई उन्हेणं पण्णत्ता, मूले दसदसाई जोयणाई विक्खंभेणं पण्णता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसियाए सेढीए दस जोयणसताई विखंभेणं पण्णत्ता, उरि मुहमूले दसवसाइं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। तेसि णं खुड्डापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामया सम्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। सभी छोटे पातालकलश एक हजार योजन गहरे कहे गये हैं / मूल भाग में उनका विस्तार सौ योजन कहा गया है / मूलभाग के विस्तार से दोनों ओर एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बहुमध्य देशभाग में उनका विस्तार एक हजार योजन कहा गया है। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार सौ योजन कहा गया है। उन छोटे पातालों की भित्तियाँ सर्ववज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दश योजन विस्तार वाली कही गई हैं (35) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org