________________ 660 [ स्थानाङ्गसूत्र 1. अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी शब्द सुने थे। 2. अनेक जीवों ने शरीर के सर्वदेश से भी शब्द सुने थे। 3. अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी रूप देखे थे / 4. अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी रूप देखे थे। 5. अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी गन्ध सूघे थे। 6. अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी गन्ध सू घे थे / 7. अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी रस चखे थे ! 8. अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी रस चखे थे। 6. अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी स्पों का वेदन किया था। 10. अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी स्पर्शों का वेदन किया था (3) / विवेचन-टीकाकार ने 'देशत:' और 'सर्वतः' के अनेक अर्थ किए है। यथा-बहुत-से शब्दों के समूह में किसी को सुनना और किसी को न सुनना देशतः सुनना है। सबको सुनना सर्वतः सुनना है / अथवा देशतः सुनने का अर्थ इन्द्रियों के एक देश से अर्थात् श्रोत्र से सुनना है / संभिन्नश्रोतोलब्धि वाला सभी इन्द्रियों से शब्द सुनता है। अथवा एक कान से सुनना देशतः और दोनों कानों से सुनना सर्वतः सुनना कहलाता है। ४-दस इंदियत्था पडुप्पण्णा पण्णता, तं जहा–देसेणवि एगे सद्दाइं सुणेति / सव्वेणवि एगे सहाई सुणेति / (देसेणवि एगे रूबाइं पासंति / सम्वेणवि एगे रूवाई पासंति / देसेणवि एगे गंधाइं. जिघंति / सवेणवि एगे गंधाई जिघंति / देसेणवि एगे रसाइं प्रासादेति / सवेणवि एगे रसाई प्रासादेति / देसेणवि एगे फासाई पडिसंवेदेति / सम्वेणवि एगे फासाई पडिसंवेदेति) / इन्द्रियों के वर्तमानकालीन विषय दश कहे गये हैं / जैसे१. अनेक जीव शरीर के एक देश से भी शब्द सुनते हैं / 2. अनेक जीव शरीर के सर्वदेश से भी शब्द सुनते हैं / 3. अनेक जीव शरीर के एक देश से भी रूप देखते हैं ! 4. अनेक जीव शरीर के सर्व देश से भी रूप देखते हैं / 5. अनेक जीव शरीर के एक देश से भी गन्ध सूघते हैं। 6. अनेक जीव शरीर के सर्व देश से भी गन्ध संघते हैं। 7. अनेक जीव शरीर के एक देश से भी रस चखते हैं। 8. अनेक जीव शरीर के सर्व भाग से भी रस चखते हैं। 6. अनेक जीव शरीर के एक देश से भी स्पर्शों का वेदन करते हैं। 10. अनेक जीव शरीर के सर्व देश से भी स्पर्शों का वेदन करते हैं / ५-दस इंदियत्था अणागता पण्णत्ता, तं जहा--देसेवि एगे सद्दाई सुणिस्संति / सन्वेणवि . एगे सद्दाइं सुणिस्संति (देसेणवि एगे रूवाइं पासिस्संति / सम्वेणवि एगे रूवाइं पासिस्संति / देसेणवि एगे गंधाई जिघिस्संति / सवेणवि एगे गंधाई जिघिस्संति / देसेणवि एगे रसाई प्रासादेस्संति / सम्वेवि एगे रसाइं प्रासादेस्सति / देसेणवि एगे फासाई पडिसंवेदेस्संति)। सवेणवि एगे फासाई पडिसंवदेस्संति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org