________________ दशम स्थान ] 6. न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि जब लोक, अलोक हो जाय और अलोक, लोक हो जाय / यह भी एक लोकस्थिति कही गई है। 7. न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि जब लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाय और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाय / यह भी एक लोकस्थिति कही गई है। 8. जहां तक लोक है, वहां तक जीव हैं और जहां तक जीव हैं वहां तक लोक है। यह भी एक लोकस्थिति कही गई है। 6. जहां तक जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय (गमन) है, वहां तक लोक है और जहां तक लोक है, वहां तक जोवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है / यह भी एक लोकस्थिति कही गई है। 10. लोक के सभी अन्तिम भागों में अबद्ध पार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा रूक्ष कर दिये जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर गमन करने के लिए समर्थ नहीं होते हैं / यह भी एक लोकस्थिति कही गई है (1) / इन्द्रियार्थ-सूत्र २–दसविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहासंग्रह-श्लोक णीहारि पिडिमे लुक्खे, भिण्णे जज्जरिते इय। दोहे रहस्से पुहत्ते य, काकणी खिखिणिस्सरे // 1 // शब्द दश प्रकार का कहा गया है / जैसे१. निर्हारो-घण्टे से निकलने वाला धोषवान् शब्द / 2. पिण्डिम-घोष-रहित नगाड़े का शब्द / 3. रूक्ष-काक के समान कर्कश शब्द / 4. भिन्न-वस्तु के टूटने से होने वाला शब्द / 5. जर्जरित–तार वाले बाजे का शब्द / 6. दोर्ष-दूर तक सुनाई देने वाला मेघ जैसा शब्द / 7. ह्रस्व--सूक्ष्म या थोड़ी दूर तक सुनाई देने वाला वीणादि का शब्द / 8. पृथक्त्व--अनेक बाजों का संयुक्त शब्द / 9. काकणी-सूक्ष्म कण्ठों से निकला शब्द / 10. किंकिणीस्वर-घूघरुओं की ध्वनि रूप शब्द (2) / ३-दस इंदियत्था तीता पण्णता, तं जहा–देसेणवि एगे सद्दाई सुणिसु / सवेगवि एगे सद्दाई सुणिसु / देसेणवि एगे रूवाइं पासिसु / सम्वेणवि एगे रूबाई पासिसु / (देसेणवि एगे गंधाई जिविसु / सव्वेणवि एगे गंवाई जिघिसु / देसेणवि एगे रसाई प्रासासु / सम्वेणवि एगे रसाइं प्रासादेसु / देसेणवि एगे फासाई पडिसंवेदेसु) / सवेणवि एगे फासाई पडिसंवेदेसु। इन्द्रियों के अतीतकालीन विषय दश कहे गये हैं / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org