________________ नवम स्थान ] [673 2. गतिबन्धन परिणाम-प्रतिनियत गति नामकर्म का बन्ध कराने वाला आयु का स्वभाव / जैसे-नारकायु के स्वभाव से जीव मनुष्य या तिर्यंच गतिनाम कर्म का बन्ध करता है, देव या नरक गतिनाम कर्म का नहीं। 3. स्थिति परिणाम-भव सम्बन्धी अन्तर्मुहर्त से लेकर तेतोस सागरोपम तक को स्थिति का यथायोग्य बन्ध कराने वाला परिणाम / 4. स्थितिबन्धन परिणाम-पूर्व भव की प्रायु के परिणाम से अगले भव की नियत अायु स्थिति का बन्ध कराने वाला परिणाम जैसे-तिर्यगायु के स्वभाव से देवायु का उत्कृष्ट भी बन्ध अठारह सागरोपम होगा, इससे अधिक नहीं। 5. ऊर्ध्वगौरव परिणाम-जीव का ऊर्ध्व दिशा में गमन कराने वाला परिणाम / 6. अधोगौरव परिणाम--जीव का अधो दिशा में गमन कराने वाला परिणाम / 7. तिर्यग्गौरव परिणाम-जीव का तिर्यग दिशा में गमन कराने वाला परिणाम / 8. दीर्घगौरव परिणाम-जीव का लोक के अन्त तक गमन कराने वाला परिणाम / 6. ह्रस्वगौरव परिणाम–जीव का अल्प गमन कराने वाला परिणाम (40) / प्रतिमा-सूत्र ४१–णवणवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीतीए रातिदिएहि च उहि य पंचुत्तरेहि भिक्खासतेहि अहासुत्तं (अहानत्थं अहातच्चं अहामग्गं अहाकप्पं सम्म काएणं फासिया पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया) पाराहिया यावि भवति / नव-नवमिका भिक्षुप्रतिमा 81 दिन-रात तथा 405 भिक्षादत्तियों के द्वारा यथासूत्र, यथाअर्थ, यथातत्त्व, यथामार्ग, यथाकल्प, तथा सम्यक् प्रकार काय से प्राचरित, पालित, शोधित, पूरित, कोत्तित और पाराधित की जाती है (41) / प्रायश्चित-सूत्र ४२–णवविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे (पडिक्कमणारिहे. तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्स गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे), मूलारिहे, प्रणवठ्ठप्पारिहे / प्रायश्चित्त नौ प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आलोचना के योग्य, 2. प्रतिक्रमण के योग्य, 3. तदुभय-मालोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य, 4. विवेक के योग्य, 5 व्युत्सर्ग के योग्य, 6 तप के योग्य, 7. छेद के योग्य, 8. मूल के योग्य, 6 अनवस्थाप्य के योग्य (42) / कूट-सूत्र ४३-जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पब्वयस्स दाहिणे णं भरहे दीहवेतड्ढे गव कूडा पण्णत्ता, तो जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org