________________ नवम स्थान ] - [ 671 मिक्षाशुद्धि-सूत्र ३०-समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्ध भिक्खे पण्णत्तेत जहा–ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंतं णाणुजाणति, ण किणति, ण किणावेति, किणंतं पाणुजाणति / श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नौ कोटि परिशुद्ध भिक्षा का निरूपण किया है। जैसे 1. पाहार निष्पादनार्थ गेहूँ आदि सचित्त वस्तु का घात नहीं करता है। 2. आहार निष्पादनार्थ गेहूँ आदि सचित्त वस्तु का घात नहीं कराता है। 3. आहार निष्पादनार्थ गेहूं आदि सचित्त वस्तु के घात की अनुमोदना नहीं करता है। 4. आहार स्वयं नहीं पकाला है / 5. आहार दूसरों से नहीं पकवाता है / 6. आहार पकाने वालों की अनुमोदना नहीं करता है / 7. आहार को स्वयं नहीं खरीदता है। 8. आहार को दूसरों से नहीं खरीदवाता है / 6. आहार मोल लेने वाले की अनुमोदना नहीं करता है (30) / देव-सूत्र ३१-ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारग्णो णव अग्गमहिसीनो पण्णत्तायो। देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज वरुण की नौ अग्रमहिषियों कही गई हैं (31) / ३२-ईसाणस्स णं विदस्स देवरणो अग्गमहिसीणं णव पलिग्रोवमाई ठिती पण्णता / देवेन्द्र देवराज ईशान की अग्रमहिषियों की स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है (32) / 33- ईसाणे कप्पे उक्कोसेणं देवीणं णव पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। ईशानकल्प में देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है (33) / ३४–णव देवणिकाया पण्णत्ता, त जहासंग्रहणी-गाथा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य / तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य // 1 // देव (लोकान्तिकदेव) निकाय नौ कहे गये हैं / जैसे 1. सारस्वत, 2. आदित्य, 3. वह्नि, 4. वरुण, 5. गर्दतोय, 6. तुषित, 7. अव्याबाध, 8. अग्न्यर्च, 6. रिष्ट (34) / ३५---अव्वाबाहाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता। अव्याबाध देव स्वामी रूप में नौ हैं और उनका नौ सौ देवों का परिवार कहा गया है (35) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org