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________________ 668 ] [स्थानाङ्गसूत्र 6. अतीत और अनागत के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का ज्ञान, सो प्रकार के शिल्प, प्रजा के लिए हितकारक सुरक्षा, कृषि और वाणिज्य कर्म काल महानिधि से प्राप्त होते हैं / / 7 / / 7. लोहे, चाँदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति महाकाल निधि से होती है / / 8 / / 8. योद्धाओं, यावरणों (कवचों) और प्रायुधों की उत्पत्ति, सर्व प्रकार की युद्धनीति और दण्डनीति की प्राप्ति माणवक महानिधि से होती है / / 6 / / 6. नृत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों, तथा सभी प्रकार के वाद्यों की प्राप्ति शंख महानिधि से होती है // 10 // विवेचन-चक्रवर्ती के नौ निधानों के नायक नौ देव हैं। यहाँ पर निधान और निधाननायक देव के अभेद की विवक्षा है। अतएव जिस निधान (निधि) से जिन वस्तुओं की प्राप्ति कही गई है, वह निधान-नायक उस-उस देव से समझना चाहिए। नौ निधियों में चक्रवर्ती के उपयोग की सभी वस्तुओं का समावेश हो जाता है। प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थित है। वे पाठ योजन ऊंची, नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी और मंजूषा के आकार वाली होती हैं। ये सभी महानिधियाँ गंगा के मुहाने पर अवस्थित रहती है // 11 // ___ उन निधियों के कपाट वैडूर्यरत्नमय और सुवर्णमय होते हैं। उनमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े होते हैं। उन पर चन्द्र, सूर्य और चक्र के आकार के चिह्न होते हैं। वे सभी कपाट समान होते हैं, उनके द्वार के मुखभाग खम्भे के समान गोल और लम्बी द्वार-शाखाएं होती हैं / / 12 / / ये सभी निधियाँ एक-एक पल्योपम की स्थिति वाले देवों से अधिष्ठित रहती हैं। उन पर निधियों के नाम वाले देव निवास करते हैं / ये निधियाँ खरीदी या बेची नहीं जा सकती हैं और उन पर सदा देवों का आधिपत्य रहता है / / 13 // ये नबों निधियाँ विपुल धन और रत्नों के संचय से समृद्ध रहती हैं और ये चक्रवत्तियों के वश में रहती हैं // 14 // विकृति-सूत्र २३–णव विगतीनो पण्णत्तानो, तं जहा-खीरं, दधि, णवणीतं, सपि, तेलं, गुलो, महुं, मज्जं, मंसं। 1. दि० शास्त्रों में भी चक्रवती की उक्त नौ निधियों का वर्णन है, केवल नामों के क्रमों में अन्तर है। कार्यों के साथ उनके नाम इस प्रकार हैं१. कालनिधि द्रव्य-प्रदात्री। 2. महाकालनिधि-भाजन, पात्र-प्रदात्री। 3. पाण्डुनिधि-धान्य-प्रदात्री। 4. माणवनिधि–प्रायुध-प्रदात्री / 5. शंखनिधि-वादित्र-प्रदात्री। 6. पद्मनिधि-वस्त्र-प्रदात्री। 7. नैसर्पनिधि-भवन-प्रदात्री। 8. पिंगलनिधि-आभरण-प्रदात्री। 9. नानारत्ननिधि-नाना प्रकार के रत्नों की प्रदात्री। -तिलोयपग्णत्ती. 4, गा. 1384, 1386. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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