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________________ 662] [स्थानाङ्गसूत्र सेवित्ता भवति / 4. इत्थोणं इंदियाई (मणोहराई मणोरमाइं पालोइत्ता) णिज्झाइत्ता भवति / 5. पणीयरसभोई [भवति ?] / 6. पाणभोयणस्स अइमायमाहारए सया भवति / 7. पुटवरयं पुवकोलियं सरित्ता भवति / 8. सहाणवाई रूवाणुवाई सिलोगाणुवाई [भवति ?] / 6. सायासोक्खपडिबद्ध यावि भवति / ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियाँ या विराधिकाएं कही गई हैं / जैसे१. जो ब्रह्मचारी एकान्त में शयन-आसन का सेवन नहीं करता, किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और नपुसकसंसक्त स्थानों का सेवन करता है। 2. जो ब्रह्मचारी स्त्रियों को कथा करता है। 3. जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन करता है। 4. जो ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनका चिन्तन करता है। 5. जो ब्रह्मचारी प्रणीत रसवाला भोजन करता है। 6. जो ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में आहार-पान करता है / 7. जो ब्रह्मचारी पूर्वभुक्त भोगों और क्रीड़ाओं का स्मरण करता है। 8. जो ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दों को सुनने का, सुन्दर रूपों को देखने का और कोत्ति-प्रशंसा का अभिलाषी होता है। 6. जो ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुखमें प्रतिबद्ध होता है (4) / तीर्थकर-सूत्र -अभिणंदणाणो णं अरहनो सुमती अरहा णहि सागरोवमकोडीसयसहस्सेहि वोइक्कतेहि समुप्पण्णे। अर्हत् अभिनन्दन के अनन्तर नौ लाख करोड़ सागरोपमकाल व्यतीत हो जाने पर अर्हत् सुमति देव उत्पन्न हुए (5) / सद्भावपदार्थ-सूत्र ६-णव सम्भावपयत्था पण्णत्ता, तं जहा-जीवा, अजीवा, पुण्णं, पावं, पासवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, मोक्खो। सद्भाव रूप पारमार्थिक पदार्थ नौ कहे गये हैं / जैसे-- 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. प्रास्रव, 6. संवर, 7. निर्जरा, 8. बन्ध, 6. मोक्ष (6) / जीव-सूत्र ७-गवविहा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढ विकाइया, (आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया), वणस्सइकाइया, बेइंदिया, (तेइंदिया, चरिदिया), पंचिदिया। संसार-समापनक जीव नौ प्रकार के कहे गये हैं। जैसे 1. पृथ्वीकायिक, 2. अप्कायिक, 3. तेजस्कायिक, 4. वायुकायिक, 5. वनस्पतिकायिक, 6. द्वीन्द्रिय, 7. त्रीन्द्रिय, 8. चतुरिन्द्रिय, 6. पंचेन्द्रिय (7) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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