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________________ नवम स्थान] 3. शीतोष्णीय-शीत अर्थात् अनुकूल और उष्ण अर्थात् प्रतिकूल परीषहों के सहने का वर्णन करनेवाला अध्ययन / 4. सम्यक्त्व-दृष्टि-व्यामोह को छुड़ाकर सम्यक्त्व की दृढता का प्रतिपादक अध्ययन / 5. पावन्ती-लोकसार-अज्ञानादि असार तत्त्वों को छुड़ाकर लोक में सारभूत रत्नत्रय की श्रेष्ठता का प्रतिपादक अध्ययन / 6. धूत-परिग्रहों के धोने अर्थात त्यागने का वर्णन करने वाला अध्ययन / 7. विमोह-परीषह और उपसर्गों के आने पर होनेवाले मोह के त्यागने और परीषहादि को सहने का वर्णन करनेवाला अध्ययन / 8. उपधानश्रु त-भ० महावीर-द्वारा आचरित उपधान अर्थात् तप का प्रतिपादक श्रु त अर्थात् अध्ययन / 6. महापरिज्ञा-जीवन के अन्त में समाधिमरणरूप अन्तक्रिया सम्यक् प्रकार करनी चाहिए, __इसका प्रतिपादक अध्ययन / उक्त नौ स्थान ब्रह्मचर्य के कहे गये हैं (2) / ब्रह्मचर्य-गुप्ति-सूत्र ३–णव बंभचेरगुत्तीसो पण्णत्तानो, तं जहा–१. विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवतिणो इस्थिसंसत्ताई णो पसुसंसत्ताइं जो पंडगसंसत्ताई। 2. णो इत्थीणं कहं कहेता भवति / 3. णो इथिठाणाई सेवित्ता भवति / 4. णो इत्थीमिदियाइं मणोहराई मणोरमाई पालोइता णिज्झाइत्ता भवति / 5. णो पणोतरसभोई [भवति ?] / 6. गो पाणभोयणस्स अतिमातमाहारए सया भवति / 7. णो पुवरतं पुश्वकीलियं सरेता भवति / 8. णो सद्दाणुवाती णो रूवाणुवाती णो सिलोगाणुवाती [भवति ? ] / 6. णो सातसोक्खपडिबद्ध यावि भवति / ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ (बाड़े) कही गई हैं। जैसे--- 1. ब्रह्मचारी एकान्त में शयन और प्रासन करता है, किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और __ नपुसक के संसर्गवाले स्थानों का सेवन नहीं करता है। 2. ब्रह्मचारी स्त्रियों की कथा नहीं करता है। 3. ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन नहीं करता है / 4. ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता है / 5. ब्रह्मचारी प्रणीतरस-घृत-तेलबहुल-भोजन नहीं करता है। 6. ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में आहार-पान नहीं करता है। 7. ब्रह्मचारी पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों और स्त्रीक्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करता है। 8. ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दों को सुनने का, सुन्दर रूपों को देखने का और कीत्ति-प्रशंसा का ___अभिलाषी नहीं होता है। 6. ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुख में प्रतिबद्ध-आसक्त नहीं होता है (3) / ब्रह्मचर्य-अगुप्ति-सूत्र __४–णव बंभचेरअगुत्तीरो पण्णतामो, तं जहा-१. णो विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवति-इत्थीसंसत्ताई पसुसंसत्ताई पंडगसंसत्ताई। 2. इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति। 3. इस्थिठाणाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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