________________ 656 ] [ स्थानाङ्गसूत्र फैल कर कपाट के आकार के हो जाते हैं, अतः उसे कपाटसमुद्घात कहते हैं / तीसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश दक्षिण-उत्तर दिशा में लोक के अन्त तक फैल जाते हैं, इसे मन्थान समुद्घात कहते हैं। दि० शास्त्रों में इसे प्रतर समुद्घात कहते हैं / चौथे समय में वे आत्म-प्रदेश बीच के भागों सहित सारे लोक में फैल जाते हैं, इसे लोक-पूरण समुद्घात कहते हैं। इस अवस्था में केवली के आत्म-प्रदेश और लोकाकाश के प्रदेश सम-प्रदेश रूप से अवस्थित होते हैं। इस प्रकार इन चार समयों में केवली के प्रदेश उत्तरोत्तर फैलते जाते हैं। पुनः पाँचवें समय में उनका संकोच प्रारम्भ होकर मंथान-आकार हो जाता है, छठे समय में कपाट-आकार हो जाता है, सातवें समय में दण्ड-पाकार हो जाता है और आठवें समय में वे शरीर में प्रवेश कर पूर्ववत् शरीराकार से अवस्थित हो जाते हैं। ___ इन आठ समयों के भीतर नाम, गोत्र और वेदनीय-कर्म की स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से निर्जरा होकर उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण रह जाती है / तब वे सयोगी जिन योग-निरोध की क्रिया करते हुए अयोगी बनकर चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और 'अ, इ, उ, ऋ, ल' इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के प्रमाणकाल में शेष रहे चारों अधातिकर्मों की एक साथ सम्पूर्ण निर्जरा करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अनुत्तरौपपातिक-सूत्र ११५--समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गतिकल्लाणाणं (ठितिकल्लाणाणं) प्रागमेसिभद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोबवाइयसंपया हुत्था / श्रमण भगवान् महावीर के अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले साधुनों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। वे कल्याणगति वाले, कल्याण स्थितिवाले और आगामी काल में निर्वाण प्राप्त करने वाले हैं। वानव्यन्तर-सूत्र ११६--प्रदुविधा वाणमंतरा देवा पण्णत्ता, तं जहा–पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा, किण्णरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधवा / वाण-व्यन्तर देव आठ प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. पिशाच, 2. भूत, 3. यक्ष, 4. राक्षस 5. किन्नर, 6. किम्पुरुष 7. महोरग 8. गन्धर्व ११७-एतेसि णं अट्ठविहाणं वाणमंतरदेवाणं अट्ट चेइयरुक्खा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी-गाथा कलंबो उ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेइयं / तुलसी भूयाण भवे, रक्खसाणं च कंडो॥१॥ असोलो किण्णराणं च, किंपुरिसाणं तु चंपनो। जागरुक्खो भयंगाणं, गंधवाण य तेंदुओ // 2 // आठ प्रकार के वाण-व्यन्तर देवों के पाठ चैत्य वृक्ष कहे गये हैं। जैसे--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org