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________________ अष्टम स्थान] [655 महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में विमान आठ सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं (112) / वादि-सम्पदा-सूत्र ११३-अरहतो णं अरिटुणेमिस्स अट्ठसया वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए वादे अपराजिताणं उक्कोसिया वादिसंपया हुत्था। अर्हत् अरिष्टनेमि के वादी मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी; जो देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् में वाद-विवाद के समय किसी से भी पराजित नहीं होते थे (113) / केवलिसमुद्घात-सूत्र ११४-असमइए केवलिसमग्घाते पण्णत्ते, तं जहा-पढमे समए दंडं करेति, बीए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेति, पंचमें समए लोग पडिसाहरति, छ? समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति / केवलिसमुद्धात आठ समय का कहा गया है। जैसे१. केवली पहले समय में दण्ड समुद्घात करते हैं / 2. दूसरे समय में कपाट समुद्घात करते हैं। 3. तीसरे समय में मन्थान समुद्घात करते हैं / 4. चौथे सयय में लोकपूरण समुद्घात करते हैं। 5. पांचवें समय में लोक-व्याप्त आत्मप्रदेशों का उपसंहार करते (सिकोड़ते) हैं। 6. छठे समय में मन्थान का उपसंहार करते हैं / 7. सातवें समय में कपाट का उपसंहार करते हैं। 8. आठवें समय में दण्ड का उपसंहार करते हैं (114) / / विवेचन--सभी केवली भगवान् समुद्-घात करते हैं, या नहीं करते हैं ? इस विषय में श्वे० और दि० शास्त्रों में दो-दो मान्यताएं स्पष्ट रूप से लिखित मिलती हैं / पहली मान्यता यही है कि सभी केवली भगवान् समुद्-घात करते हुए ही मुक्ति प्राप्त करते हैं / किन्तु दूसरी मान्यता यह है कि जिनको छह मास से अधिक आयुष्य के शेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे समुद्धात नहीं करते हैं। किन्तु छह मास या इससे कम आयुष्य शेष रहने पर जिनको केवलज्ञान उत्पन्न होता है वे नियम से समुद्घात करते हुए ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। उक्त दोनों मान्यताओं में से कौन सत्य है और कौन सत्य नहीं, यह तो सर्वज्ञ देव ही जानें। प्रस्तुत सूत्र में केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया और समय का निरूपण किया गया है। उसका स्पष्टोकरण इस प्रकार है-- जब केवली का आयुष्य कर्म अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रह जाता है और शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक शेष रहती है, तब उनकी स्थिति का आयुष्यकर्म के साथ समीकरण करने के लिए यह समुद्घात किया जाता या होता है। समुद्घात के पहले समय में केवली के आत्म-प्रदेश ऊपर और नीचे की ओर लोकान्त तक शरीर-प्रमाण चौड़े आकार में फैलते हैं। उनका आकार दण्ड के समान होता है, अतः इसे दण्डसमुद्घात कहा जाता है / दूसरे समय में वे ही प्रात्म-प्रदेश पूर्व-पश्चिम दिशा में चौड़े होकर लोकान्त तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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