________________ 654 ] [ स्थानाङ्गसूत्र ११०-ईसिपम्भाराए णं पुढवीए अट्ठ णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-ईसिति वा, ईसिपम्माराति था, तणूति वा, तणुतणूइ वा, सिद्धीति वा, सिद्धालएति वा, मुत्तीति वा, मुत्तालएति वा। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के आठ नाम हैं / जैसे१. ईषत्, 2. ईषत्प्राग्भारा 3. तनु, 4. तनुतनु, 5. सिद्धि, 6. सिद्धालय, 7. मुक्ति, 8. मुक्तालय (110) / अभ्युत्थातव्य-सूत्र १११-अहिं ठाणेहि सम्म घडितव्वं जतितव्वं परक्कमितव्वं अस्सि च णं अट्ठ णो पमाएतव्वं भवति 1. प्रसुयाणं धम्माणं सम्म सुणणताए अन्भुट्ठतव्वं भवति / 2. सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए प्रभुढे तन्वं भवति / 3. णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अब्भुट्ठयन्वं भवति / 4. पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिचणताए विसोहणताए अन्भुट्ठतव्वं भवति / 5. असंगिहीतपरिजणस्स संगिण्हणताए अभयव्वं भवति / 6. सेहं प्रायारगोयरं गाहणताए अब्भुढे यवं भवति / 7. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणताए अभट्ट यव्वं भवति / 8. साहम्मियाणमधिकरणसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अपक्खग्गाही मज्झत्थ भावभूते कह णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा ? उक्सामणताए अभट्ठ यव्वं भवति। आठ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए साधक सम्यक् चेष्टा करे, सम्यक् प्रयत्न करे, सम्यक् पराक्रम करे, इन आठों के विषय में कुछ भी प्रमाद नहीं करना चाहिए---- 1. अथ त धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए जागरूक रहे। 2. सुने हुए धर्मों को मन से ग्रहण करे और उनकी स्थिर-स्मृति के लिए जागरूक रहे। 3. संयम के द्वारा नवीन कर्मों का निरोध करने के लिए जागरूक रहे। 4. तपश्चरण के द्वारा पुराने कर्मों को पृथक् करने और विशोधन करने के लिए जागरूक रहे। 5. असंगृहीत परिजनों (शिष्यों) का संग्रह करने के लिए जागरूक रहे / 6. शैक्ष (नवदीक्षित) मुनि को प्राचार-गोचर का सम्यक् बोध कराने के लिए जागरूक रहे / 7. ग्लान साधु की ग्लानि-भाव से रहित होकर वैयावृत्त्य करने के लिए जागरूक रहे / 8. सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर—'ये मेरे सार्मिक किस प्रकार अपशब्द, कलह और तू-तू, मैं-मैं से मुक्त हों' ऐसा विचार करते हुए लिप्सा और अपेक्षा से रहित होकर, किसी का पक्ष न लेकर मध्यस्थ भाव को स्वीकार कर उसे उपशान्त करने के लिए जागरूक रहें। विमान-सूत्र ११२-महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसताई उड्ड उच्चत्तणं पण्णत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org