________________ 640] [ स्थानाङ्गसूत्र श्रमण भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को मुण्डित कर अगार से अनगारिता में प्रत्नजित किया। जैसे 1. वीराङ्गक, 2. वीर्ययश, 3, संजय, 4. एणेयक, 5 सेय, 6. शिव, 7. उद्दायन, 8. शंखकाशीवर्धन (41) / आहार-सूत्र ४२–अढविहे प्राहारे पण्णत्ते, त जहा-मणुष्णे असणे, पाणे, खाइमे, साइमे। अमणुण्णे (असणे, पाणे, खाइमे), साइमे। आहार आठ प्रकार का कहा गया है। जैसे१. मनोज्ञ अशन, 2. मनोज्ञ पान, 3. मनोज्ञ खाद्य, 4. मनोज्ञ स्वाद्य, 5. अमनोज्ञ अशन, 6. अमनोज्ञ पान, 7, अमनोज्ञ स्वाद्य, 8. अमनोज्ञ खाद्य (42) / कृष्णराजि-सूत्र ४३-उपि सणंकुमार-माहिदाणं कप्पाणं हेट्रि बंमलोगे कप्पे रिविमाणं-पत्थडे, एस्थ णं अक्खाङग-समचउरंस-संठाण-संठिताओ अट्ट कण्हराईप्रो पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमे णं दो कण्हराईप्रो, दाहिणे णं दो कण्हराईयो, पच्चत्यिमे गंदो कण्हराईमो, उत्तरे णं दो कण्हराईयो / पुरथिमा प्रभंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं कण्हराइं पुट्टा / दाहिणा अभंतरा कण्हराई पच्चस्थिमं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। पच्चत्थिमा अभंतरा कण्हराई उत्तरं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। उत्तरा अभंतरा कण्हराई पुरथिम बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। पुरस्थिमपच्चथिमिल्लाप्रो बाहिरानो दो कण्हराईयो छलंसायो / उत्तरदाहिणाप्रो बाहिरामो दो कण्हराईनो सानो / सन्वानो वि णं अभंतरकण्हराईयो चउरंसाओ / सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के ऊपर और ब्रह्मलोक कल्प के नीचे रिष्ट विमान का प्रस्तट है, वहाँ अखाड़े के समान समचतुरस्र (चतुष्कोण) संस्थान वाली पाठ कृष्णराजियां (काले पुद्गलों की पंक्तियां) कही गई हैं / जैसे 1. पूर्व दिशा में दो कृष्णराजियाँ, 2. दक्षिण दिशा में दो कृष्णराजियां, 3. पश्चिम दिशा में दो कृष्णराजियां, 4. उत्तर दिशा में दो कृष्णराजियाँ / पूर्व की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि दक्षिण की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है। दक्षिण की आभ्यन्तर कृष्णराजि पश्चिम की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है / पश्चिम की आभ्यन्तर कृष्णराजि उत्तर की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है / उत्तर की आभ्यन्तर कृष्णराजि पूर्व की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है। पूर्व और पश्चिम की बाह्य दो कृष्णराजियां षटकोण हैं। उत्तर और दक्षिण की बाह्य दो कृष्णराजियां त्रिकोण हैं / समस्त प्राभ्यन्तर कृष्णराजियां चतुष्कोण वाली हैं। ४४--एतासि णं अट्टण्हं कण्हराईणं अट्ठ णामधेज्जा पण्णत्ता, त जहा-कण्हराईति वा, मेहराईति वा, मघाति वा, माघवतीति वा, वातफलिहेति वा, वातपलिक्खोभेति वा, देवफलिहेति वा, देवपलिक्खोभेति वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org