________________ 636 ] [ स्थानाङ्गसूत्र छयस्थ-केवलि-सूत्र २५–अट्ठ ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण याणति ण पासति, त जहा–धम्मत्यिकायं, (अधम्मत्थिकायं, प्रागासत्यिकायं, जीवं असरीरपडिबद्ध, परमाणुपोग्गलं, सई), गंवं, वातं / एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे परहा जिणे केवली (सम्वभावेणं, जाणइ पासइ, त जहाधम्मस्थिकार्य, अधम्मस्थिकायं, प्रागासस्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्ध, परमाणुपोग्गलं, सई), गंधं वातं। आठ पदार्थों को छद्मस्थ पुरुष सम्पूर्ण रूप से न जानता है और न देखता है / जैसे१. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. शरीर-मुक्त जीव, 5. परमाणु पुद्गल, 6. शब्द, 7. गन्ध, 8. वायु / प्रत्यक्ष ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हन् जिन केवली इन आठ पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जानतेदेखते हैं। जैसे 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. शरीर- मुक्त जीव, 5. परमाणु पुद्गल, 6. शब्द, 7. गन्ध, 8. वायु (25) / आयुर्वेद-सूत्र २६–अढविधे प्राउव्वेदे पण्णते, त जहा–कुमारभिच्चे, कायतिगिच्छा, सालाई, सल्लहत्ता, जंगोली, भूतविज्जा, खारतंते, रसायणे। आयुर्वेद पाठ प्रकार का कहा गया है / जैसे१. कुमारभृत्य-बाल-रोगों का चिकित्साशास्त्र / 2. कायचिकित्सा-शारीरिक रोगों का चिकित्साशास्त्र / 3. शालाक्य-शलाका (सलाई) के द्वारा नाक-कान आदि के रोगों का चिकित्साशास्त्र / 4. शल्यहत्या शस्त्र-द्वारा चीर-फाड़ करने का शास्त्र। 5. जंगोली--विष-चिकित्साशास्त्र / 6. भूतविद्या-भूत, प्रेत, यक्षादि से पीडित व्यक्ति की चिकित्सा का शास्त्र / 7. क्षारतन्त्र-वाजीकरण, वीर्य-वर्धक औषधियों का शास्त्र / 8. रसायन-पारद आदि धातु-रसों आदि के द्वारा चिकित्सा का शास्त्र (26) / अग्रमहिषी-सूत्र २७—सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो प्रदुग्गमहिसोप्रो पणत्तामो, तं जहा-पउमा, सिवा, सची, अंजू, अमला, प्रच्छरा, णवमिया, रोहिणी। देवेन्द्र देवराज शक्र के आठ अनमहिषियां कही गई हैं। जैसे१. पद्मा, 2. शिवा, 3. शची, 4. अंजु, 5. अमला, 6. अप्सरा, 7. नवमिका, 8. रोहिणी (27) / २८-ईसाणस्स णं देविदस्स देवरण्णो प्रदुग्गमहिसोओ पण्णतामो, तं जहा–कण्हा, कण्ह राई, रामा, रामरक्खिता, बसू, बसुगुत्ता वसुमित्ता, वसुधरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org