________________ अष्टम स्थान ] [633 प्रायाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणियासमिती, मणसमिती, वइसमिती, कायसमिती। समितियां आठ कही गई हैं / जैसे--- 1. ईर्यासमिति, 2. भाषासमिति, 3. एषणासमिति, 4. आदान-भाण्ड-अमत्र-निक्षेपणासमिति, 5. उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनासमिति, 6. मनःसमिति, 7. बचनसमिति, 8. कायस मिति (17) / आलोचना-सूत्र १८--अहिं ठाणेहि संपण्णे प्रणगारे अरिहति प्रालोयणं पङिच्छित्तए, तं जहा-प्रायारवं, प्राधारवं, ववहारवं, प्रोवीलए, पकव्वए, अपरिस्साई, णिज्जावए, प्रवायदंसी। आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार अालोचना देने के योग्य होता है / जैसे१. प्राचारवान्-जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इन पाँच प्राचारों से सम्पन्न हो। 2. प्राधारवान्—जो आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोचना किये जाने वाले समस्त ___ अतिचारों को जानने वाला हो। 3. व्यवहारवान्–पागम, श्रु त, आज्ञा, धारणा और जीत, इन पाँच व्यवहारों का ज्ञाता हो / 4. अपव्रीडक-पालोचना करने वाले व्यक्ति में वह लाज या संकोच से मुक्त होकर यथार्थ आलोचना कर सके, ऐसा साहस उत्पन्न करने वाला हो। 5. प्रकारी–पालोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला हो / 6. अपरिश्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। 7. निर्यापक-बडे प्रायश्चित्त को भी निभा सके. ऐसा सहयोग देने वाला हो। 8. अपायदर्शी-प्रायश्चित्त-भंग से तथा ययार्थ पालोचना न करने से होने वाले दोषों को __दिखाने वाला हो (18) / १६-अहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अरिहति प्रत्तदोसमालोइत्तए, तं जहा-जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, सणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते / आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य होता है / जैसे 1. जातिसम्पन्न, 2. कुलसम्पन्न, 3. विनयसम्पन्न, 4. ज्ञानसम्पन्न, 5. दर्शनसम्पन्न, 6. चारित्रसम्पन्न, 7. क्षान्त (क्षमाशील) 8. दान्त (इन्द्रिय-जयी) (16) / प्रायश्चित्त-सूत्र २०-प्रदविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा–पालोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे। प्रायश्चित्त आठ प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. पालोचना के योग्य, 2. प्रतिक्रमण के योग्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org