________________ अष्टम स्थान ] बादकों के द्वारा जोर से बजाये गये बादित्र, तंत्री तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है। उसकी वहाँ जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी के रूप में मानती है, उसे महान व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है / जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच देव विना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं---'देव ! और अधिक बोलिए. और अधिक बोलिए।' पुनः वह देव आयुक्षय के, भवक्षय के और स्थितिक्षय के अनन्तर देवलोक से च्युत होकर यहीं मनुष्यलोक में, मनुष्य भव में सम्पन्न, दीप्त, विस्तीर्ण और विपुल भवन, शयन, आसन यान और नवाले, बहुधन, बहु सुवर्ण और बहुचांदी वाले, आयोग और प्रयोग (लेनदेन) में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का त्याग करनेवाले, अनेक दासी-दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित, ऐसे उच्च कूलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है। _ वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण सुगन्ध, सुरस, और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है / वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, कान्त स्वर प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर, और आदेय वचन वाला होता है। वहाँ पर उसकी जो बाह्य और पाभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी के रूप में मानतो है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य प्रासन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है / वह जब भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच मनुष्य विना कहे ही खड़े हो जाते हैं और * कहते हैं-आर्यपुत्र ! और अधिक बोलिए, और अधिक बोलिए / (इस प्रकार उसे और अधिक बोलने के लिए ससम्मान प्रेरणा की जाती है / ) संवर-असंवर-सूत्र 11- अदविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरे, (चविखदियसंवरे, घाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे), फासिदियसंवरे, मणसंवरे, वइसंवरे, कायसंवरे / संवर आठ प्रकार का कहा गया है / जैसे--- 1. श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, 2. चक्षुरिन्द्रिय-संवर, ३.घ्राणेन्द्रिय-संवर, 4. रसनेन्द्रिय-संवर, 5. स्पर्शनेन्द्रिय-संवर, 6. मनःसंवर, 7. वचन-संवर, 8. काय-संवर (11) / १२–अढविहे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोतिदियअसंबरे, (चक्विदियअसंवरे, घाणिदियअसंवरे, जिग्भिदियाप्रसंवरे, फासिदियअसंवरे, मणप्रसंबरे, बइप्रसंवरे, कायसंवरे / असंवर आठ प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, 2. चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, 2. घ्राणेन्द्रिय-असंवर, 4. रसनेन्द्रिय-असंवर, 5. स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, 6. मन:-असंवर, 7. वचन-असंवर, 8. काय-असंवर (12) / स्पर्श-सूत्र १३–अढ फासा पण्णत्ता, तं जहा-कक्खडे, मउए, गरुए, लहुए, सीते, उसिणे, गिद्ध, लुक्खे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org