________________ 630 ] [स्थानाङ्गसूत्र कोई मायावी माया करके उसकी आलोचना या प्रतिक्रमण किये बिना ही काल-मास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है, किन्तु वह महाऋद्धि वाले, महाद्य ति वाले विक्रियादि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्य वाले, ऊंची गति वाले और दीर्घस्थिति वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता। वह देव होता है, किन्तु महाऋद्धि वाला, महाद्य ति वाला, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाला, ऊंची गतिवाला और दीर्घ स्थितिवाला देव नहीं होता। वहां देवलोक में उसकी जो बाह्य और प्राभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी न उसको आदर देती है, न उसे स्वामी के रूप में मानती है और न महान् व्यक्ति के योग्य प्रासन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है / जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं 'देव ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।' पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर देवलोक से च्युत होकर यहाँ मनुष्यलोक में मनुष्य भव में जो ये अन्तकुल हैं, या प्रान्तकुल हैं, या तुच्छकुल हैं, या दरिद्रकुल हैं, या भिक्षुककुल हैं, या कृपणकुल हैं या इसी प्रकार के अन्य हीन कुल हैं, उनमें मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है / वहां वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, अनिष्ट रस और कठोर स्पर्शवाला पुरुष होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न गमने योग्य होता है / वह हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्ट स्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अरुचिकर स्वर और अनादेय वचनवाला होता है / वहाँ उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका न आदर करती है, न उसे स्वामी के रूप में समझती है, न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है / जब वह बोलने के लिए खड़ा होता है, तब चार-पाँच मनुष्य बिना कहे ही खड़े जाते हैं और कहते हैं—'आर्यपुत्र ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।' __मायावी माया करके उसकी आलोचना कर, प्रतिक्रमण कर, कालमास में काल कर किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धि वाले, महाद्य ति वाले, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाले, ऊंची गतिवाले, और दीर्घ स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धिवाला, महाद्य तिवाला, विक्रिया प्रादि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाला, ऊंची गतिवाला और दीर्घ स्थितिवाला देव होता है / उसका वक्षःस्थल हार से शोभित होता है, वह भुजाओं में कड़े, तोड़े और अंगद (बाजूबन्द) पहने हुए रहता है। उसके कानों में चंचल तथा कपोल तक कानों को घिसने वाले कुण्डल होते हैं। वह विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं और सेहरों वाला मांगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, वह मांगलिक, प्रवर, सुगन्धित पुष्प और विलेपन को धारण किये हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालानों को धारण किये रहता है / वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात (शरीर की बनावट), दिव्य संस्थान (शरीर की प्राकृति) और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है / वह दिव्यद्य ति, दिव्यप्रभा, दिव्यक्रान्ति, दिव्य अचि, दिव्य तेज, और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित करता है, वह नाट्यों, गीतों तथा कुशल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org