________________ 622] [स्थानाङ्गसूत्र 6. देव निर्वतित पुद्गलों का, 7. देवी निर्वर्तित पुद्गलों का (153) / इसी प्रकार जीवों ने सात स्थानों से निर्वतित पुद्गलों का पापकर्मरूप से उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे। पुद्गल-सूत्र १५४–सत्तपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। सात प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं (154) / 155- सत्तपएसोगाढा पोग्गला जाव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणता पण्णत्ता। सात प्रदेशावगाह वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। सात समय की स्थिति वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं / सात गुणवाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण, तथा गन्ध, रस और स्पर्शों के सात गुणवाले पुद्गलस्कन्ध अनन्तअनन्त हैं (155) / / / सप्तम स्थान समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org