________________ अष्टम स्थान सार : संक्षेप आठवें स्थान में आठ की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन किया गया है। उनमें से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विवेचन अालोचना-पद में किया गया है। यहाँ बताया गया है कि मायाचारी व्यक्ति दोषों का सेवन करके भी उनको छिपाने का प्रयत्न करता है। उसे यह भय रहता है कि यदि मैं अपने दोषों को गुरु के सम्मुख प्रकट करूंगा तो मेरी अकीति होगी, अवर्णवाद होगा, मेरा अविनय होगा, मेरा यश कम हो जायगा। इस प्रकार के मायावी व्यक्ति को सचेत करने के लिए बताया गया है कि वह इस लोक में निन्दित होता है, परलोक में भी निन्दित होता है और यदि अपनी आलोचना, निन्दा, गर्दा आदि न करके वह देवलोक में उत्पन्न होता है, तो वहाँ भी अन्य देवों के द्वारा तिरस्कार ही पाता है। वहां से चयकर मनुष्य होता है तो दीन-दरिद्र कुल में उत्पन्न होता है और वहाँ भी तिरस्कार-अपमानपूर्ण जीवन-यापन करके अन्त में दुर्गतियों में परिभ्रमण करता है / इसके विपरीत अपने दोषों की आलोचना करने वाला देवों में उत्तम देव होता है, देवों के द्वारा उसका अभिनन्दन किया जाता है / वहाँ से चयकर उत्तम जाति-कुल और वंश में उत्पन्न होता है, सभी के द्वारा आदर, सत्कार पाता है और अन्त में संयम धारण कर सिद्ध-बुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करता है। ___ मायाचारी की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए बताया गया है कि वह अपने मायाचार को छिपाने के लिए भीतर ही भीतर लोहे, ताँबे, सीसे, सोने, चाँदी आदि को गलाने की भट्टियों के समान, कुभार के पापाक (अबे) के समान और ई टों के भट्ट के समान निरन्तर संतप्त रहता है। किसी को बात करते हुए देखकर मायावी समझता है कि वह मेरे विषय में ही बात कर रहा है। इस प्रकार मायाचार के महान् दोषों को बतलाने का उद्देश्य यही है कि साधक पुरुष मायाचार न करे / यदि प्रमाद या अज्ञानवश कोई दोष हो गया हो तो निश्छलभाव से, सरलतापूर्वक उसकी आलोचना-गर्दा करके आत्म-विकास के मार्ग में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जावे / गणि-सम्पत्-पद में बताया गया है कि गण-नायक में प्राचार सम्पदा, श्रुत-सम्पदा आदि आठ सम्पदाओं का होना आवश्यक है / आलोचना करने वाले को प्रायश्चित्त देने वाले में भी अपरिश्रावी आदि आठ गुणों का होना आवश्यक है। __ केवलि-समुद्घात-पद में केवली जिन के होने वाले समुद्घात के आठ समयों का वर्णन, ब्रह्मलोक के अन्त में कृष्णराजियों का वर्णन, अक्रियावादि-पद में आठ प्रकार के अक्रियावादियों का, आठ प्रकार की आयुर्वेद चिकित्सा का, आठ पृथिवियों का वर्णन द्रष्टव्य है। जम्बूद्वीप-पद में जम्बूद्वीप सम्बन्धी अन्य वर्णनों के साथ विदेहक्षेत्र स्थित 32 विजयों और 32 राजधानियों का वर्णन भी ज्ञातव्य है। भौगोलिक वर्णन अनेक प्राचीन संग्रहणी गाथाओं के आधार पर किया गया है। इस स्थान के प्रारम्भ में बताया गया है कि एकल-विहार करने वाले साधु को श्रद्धा, सत्य, मेधा, बहुश्रु तता आदि आठ गुणों का धारक होना आवश्यक है। तभी वह अकेला विहार करने के योग्य है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org