________________ 616 ] [ स्थानाङ्गसूत्र तिष्यगुप्त समझ गये / उन्होंने कहा-'आर्य ! इस विषय में तुम्हारा अनुशासन चाहता हूं।' मित्रश्री ने उन्हें समझा कर पुनः यथाविधि भिक्षा दी। इस घटना से तिष्यगुप्त अपनी भूल समझ गये और फिर भगवान् के शासन में सम्मिलित हो गये। 3. अव्यक्तिक- निव-भ. महावीर के निर्वाण के 214 वर्ष बाद श्वेतविका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ़भूति के शिष्य थे। श्वेतविका नगरी में रहते समय वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास कराते थे। एक बार वे हृदय-शूल से पीड़ित हुए और उसी रोग से मर कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान से अपने मृत शरीर को देखा और देखा कि उनके शिष्य आगाढ योग में लीन हैं, तथा उन्हें प्राचार्य की मृत्यु का पता नहीं है / तब देवरूप में प्रा. आषाढ का जीव नीचे पाया और अपने मृत शरीर में प्रवेश कर उसने शिष्यों को कहा-'वैरात्रिक करो।' शिष्यों ने उनकी वन्दना कर वैसा ही किया। जब उनकी योग-साधना समाप्त हुई, तब आ. आषाढ़ का जीव देवरूप में प्रकट होकर बोला-'श्रमणो ! मुझे क्षमा करें। मैंने असंयती होते हुए भी आप संयतों से वन्दना कराई है।' यह कह के अपनी मृत्यु की सारी बात बता कर वे अपने स्थान को चले गये। उनके जाते ही श्रमणों को सन्देह हो गया-'कौन जाने कि कौन साधु है और कौन देव है ? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कह सकते ! सभी वस्तुएं अव्यक्त हैं।' उनका मन सन्देह के हिंडोले में झूलने लगा। स्थविरों ने उन्हें समझाया, पर वे नहीं समझे / तब उन्हें संघ से बाहर कर दिया गया। अव्यक्तवाद को मानने वालों का कहना है कि किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सब कुछ अव्यक्त है / अव्यक्तवाद का प्रवर्तन प्रा. आषाढ़ ने नहीं किया था। इसके प्रवर्तक उनके शिष्य थे। किन्तु इस मत के प्रवर्तन में प्रा. आषाढ़ का देवरूप निमित्त बना, इसलिए उन्हें इस मत का प्रवर्तक मान लिया गया। 4. सामुच्छेदिक-निह्नव-भ. महावीर के निर्वाण के 220 वर्ष बाद मिथिलापुरी में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई / इसके प्रवर्तक प्रा. अश्वमित्र थे। __ एक बार मिथिलानगरी में प्रा. महागिरि ठहरे हुए थे। उनके शिष्य का नाम कोण्डिन्य और प्रशिष्य का नाम अश्वमित्र था। वह विद्यानुवाद पूर्व के नैपुणिक वस्तु का अध्ययन कर रहा था / उसमें छिन्नच्छेदनय के अनुसार एक आलापक यह था कि पहले समय में उत्पन्न सभी नारक जीव विच्छिन्न हो जावेंगे, इसी प्रकार दूसरे-तीसरे आदि समयों में उत्पन्न नारक विच्छिन्न हो जावेंगे। इस पर्यायवाद के प्रकरण को सुनकर अश्वमित्र का मन शंकित हो गया। उसने सोचा-यदि वर्तमान समय में उत्पन्न सभी जीव किसी समय विच्छिन्न हो जावेंगे, तो सूकृत-दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा ? क्योंकि उत्पन्न होने के अनन्तर ही सब को मृत्यु हो जाती है। गुरु ने कहा-वत्स ! ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से ऐसा कहा गया है, सभी नयों की अपेक्षा से नहीं / निर्ग्रन्थप्रवचन सर्वनय-सापेक्ष होता है / अतः शंका मत कर / एक पर्याय के विनाश से वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रकार से प्राचार्य-द्वारा समझाने पर भी वह नहीं समझा। तब आचार्य ने उसे संघ से निकाल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org