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________________ सप्तम स्थान ] [ 615 कहा जा सकता ! जो सम्मन्न हो चुका है, उसे ही कृत कहा जा सकता है। कार्य की निष्पत्ति अन्तिम क्षण में ही होती है, उसके पूर्व नहीं।' उन्होंने अपने साधुओं को बुलाकर कहा-भ. महावीर कहते हैं 'जो चलमान है, वह चलित है, जो उदीर्यमाण है, वह उदीरित है और जो निर्जीर्यमाण है, वह निर्जीर्ण है। किन्तु मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि उनका सिद्धान्त मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष देखो कि विछौना क्रियमाण है, किन्तु कृत नहीं है। वह संस्तीर्यमाण है, किन्तु संस्तृत नहीं है।' जमालि का उक्त कथन सुनकर अनेक साधु उनकी बात से सहमत हुए और अनेक सहमत नहीं हुए। कुछ स्थविरों ने उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु उन्होंने अपना मत नहीं बदला। जो उनके मत से सहमत नहीं हुए, वे उन्हें छोड़कर भ. महावीर के पास चले गये। जो उनके मत से सहमत हुए, वे उनके पास रह गये। जमालि जीवन के अन्त तक अपने मत का प्रचार करते रहे। यह पहला निह्नव बहुरतवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि वह बहुत समयों में कार्य की निष्पत्ति मानते थे। 2. जीवप्रादेशिक निद्रव-भ. महावीर के कैवल्यप्राप्ति के सोलह वर्ष बाद ऋषभपर में जीवप्रादेशिकवाद नाम के निद्रव की उत्पत्ति हई। चौदह पूर्वो के ज्ञाता प्रा. वस से उनका एक शिष्य तिष्यगुप्त प्रात्मप्रवाद पूर्व पढ़ रहा था। उसमें भ. महावीर और गौतम का संवाद पाया। गौतम ने पूछा-भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं ? भगवान् ने कहा-नहीं। गौतम-भगवन् ! क्या दो तीन आदि संख्यात या असंख्यात प्रदेश को जीव कह सकते हैं ? भगवान् ने कहा नहीं / अखण्ड चेतन द्रव्य में एक प्रदेश से कम को भी जीव नहीं कहा जा सकता / भगवान् का यह उत्तर सुन तिष्यगुप्त का मन शंकित हो गया। उसने कहा-'अन्तिम प्रदेश के विना शेष प्रदेश जीव नहीं हैं, इसलिए अन्तिम प्रदेश ही जीव है।' आ० वसु ने उसे बहुत समझाया, किन्तु उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उन्होंने उसे संघ से अलग कर दिया। तिष्यगुप्त अपनी मान्यता का प्रचार करते आमलकल्पा नगरी पहुँचे। वहाँ मित्रश्री श्रमणोपासक रहता था। अन्य लोगों के साथ वह भी उनका धर्मोपदेश सुनने गया। तिष्यगुप्त ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया। मित्रश्री ने जान लिया कि ये मिथ्या प्ररूपण कर रहे हैं। फिर भी वह प्रतिदिन उनके प्रवचन सुनने को प्राता रहा / एक दिन तिष्यगुप्त भिक्षा के लिए मित्रश्री के घर गये। तब मित्रश्री ने अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ उनके सामने रखे और उनका एक एक अन्तिम अंश तोड़ कर उन्हें देने लगा। इसी प्रकार चावल का एक, घास का एक तिनका और वस्त्र के अन्तिम छोर का एक तार निकाल कर उन्हें दिया। तिष्यगुप्त सोच रहा था कि यह भोज्य सामग्री मुझे बाद में देगा। किन्तु मित्रश्री उनके चरण-बन्दन करके बोला-अहो, मैं पुण्यशाली हूं कि आप जैसे गुरुजन मेरे घर पधारे / यह सुनते ही तिष्यगुप्त क्रोधित होकर बोले-'तूने मेरा अपमान किया है।' मित्रश्री ने कहा- मैंने आपका अपमान नहीं किया, किन्तु आपकी मान्यता के अनुसार ही आपको भिक्षा दी है / आप वस्तु के अन्तिम प्रदेश को ही वस्तु मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं / इसलिए मैंने प्रत्येक पदार्थ का अन्तिम अंश आपको दिया है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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