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________________ सप्तम स्थान ] [ 613 2. परछन्दानुवत्तित्व-प्राचार्यादि के अभिप्राय के अनुसार चलना। 3. कार्य हेतु–'इसने मुझे ज्ञान दिया' ऐसे भाव से उसका विनय करना / 4. कृतप्रतिकृतिता-प्रत्युपकार की भावना से विनय करना। 5. प्रार्तगवेषणता-रोग-पीड़ित के लिए औषध आदि का अन्वेषण करना। 6. देश-कालज्ञता-देश-काल के अनुसार अवसरोचित विनय करना। 7. सर्वार्थ-अप्रतिलोमता-सब विषयों में अनुकूल आचरण करना (137) / समुद्घात-सूत्र १३८-सत्त समुग्घाता पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्धाए, वेउब्वियसमुग्घाए, तेजससमुग्घाए, आहारगसमुग्घाए, केवलिसमुग्घाए / समुद-घात सात कहे गये हैं। जैसे१. वेदनासमुद्घात---बेदना से पीड़ित होने पर कुछ आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना / 2. कषायसमुद्घात -तीव्र क्रोधादि की दशा में कुछ प्रात्मप्रदेशों का बाहर निकलना / 3. मारणान्तिक समुद्घात–मरण से पूर्व कुछ आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना / 4. वैक्रियसमुद्धात–विक्रिया करते समय मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए उत्तर शरीर में जीवप्रदेशों का प्रवेश करना। 5. तेजससमुद्घात--तेजोलेश्या प्रकट करते समय कुछ आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना / 6. आहारकसमुद्घात-समीप में केवली के न होने पर चतुर्दशपूर्वी साधु की शंका के समाधानार्थ मस्तक से एक श्वेत पुतले के रूप में कुछ आत्म-प्रदेशों का केवली के निकट जाना और वापिस आना। 7. केवलि-समुद्घात-पायुष्य के अन्तर्मुहूर्त रहने पर तथा शेष तीन कर्मों की स्थिति बहुत अधिक होने पर उसके समीकरण करने के लिए दण्ड, कपाट आदि के रूप में जीव प्रदेशों का शरीर से बाहर फैलना (138) / १३६--मणुस्साणं सत्त समुग्धाता पण्णत्ता एवं चैव / मनुष्यों के इसी प्रकार ये ही सातों समुद्घात कहे गये हैं (136) / विवेचन–अात्मा जब वेदनादि परिणाम के साथ एक रूप हो जाता है तब वेदनीय आदि के कर्मपुदगलों का विशेष रूप से घात-निर्जरण होता है। इसी को समुद्घात कहते हैं। समुद्घात के समय जीव के प्रदेश शरीर से बाहर भी निकलते हैं। वेदना आदि के भेद से समुद्घात के भी सात भेद कहे गये हैं। इनमें से पाहारक और केवलि-समुद्घात केवल मनुष्यगति में ही संभव हैं, शेष तीन गतियों में नहीं। यह इस सूत्र से सूचित किया गया है। प्रवचन-निह्नव-सूत्र 140 -- समणस्स णं भगवप्रो महावीरस्स तिथंसि सत्त पवयणणिण्हगा पण्णत्ता, तंजा. बहरता, जीवपए मिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, प्रद्धिया। ___श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में सात प्रवचननिह्नव (बागम के अन्यथा-प्ररूपक) कहे गये हैं / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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