________________ 568 ] [ स्थानाङ्गसूत्र दर्शन-सूत्र 76 सत्तविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा–सम्मइंसणे, मिच्छइंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदसणे, अचक्खुदंसणे, प्रोहिदसणे, केवलदंसणे। दर्शन सात प्रकार का कहा गया है / जैसे१. सम्यग्दर्शन--वस्तु के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान / 2. मिथ्यादर्शन-वस्तु के स्वरूप का अयथार्थ श्रद्धान / 3. सम्यग्मिथ्यादर्शन-यथार्थ और अयथार्थ रूप मिश्र श्रद्धान / 4. चक्षुदर्शन--प्रांख से सामान्य प्रतिभास रूप अवलोकन / 5. अचक्षुदर्शन--पांख के सिवाय शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य प्रतिभास रूप अवलोकन / 6. अवधिदर्शन-अवधिज्ञान होने के पूर्व अवधिज्ञान के विषयभूत पदार्थ का सामान्य .. प्रतिभासरूप अवलोकन / 7. केवल दर्शन–समस्त पदार्थों के सामान्य धर्मों का अवलोकन (76) / छमस्थ-केवलि-सूत्र ७७-छउमत्थ-वीयरागे णं मोहणिज्जवज्जाम्रो सत्त कम्मपयडीयो वेदेति, तं जहा–णाणावर. णिज्ज, देसणावरणिज्ज, वेयणिज्जं, पाउयं, णाम, गोतं, अंतराइयं / छद्मस्थ वीतरागी (ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती) साधु मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है जैसे 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. आयुष्य, 5. नाम, 6. गोत्र, 7. अन्तराय (77) / ७८-सत्त ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण याणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकार्य, प्रागासस्थिकायं, जीवं असरोरपडिबद्ध, परमाणुपोग्गलं, सदं, गंधं / एयाणि चेव उप्पण्णणाण (दंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं) जाणति पासति, त जहा-धम्मत्थिकायं, (अधम्मस्थिकायं, पागासस्थिकायं, जोवं असरोरपडिबद्ध, परमाणपोग्गलं, सई), गंध। छद्मस्थ जीव सात पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से न जानता है और न देखता है / जैसे - 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. शरीररहित जीव, 5. परमाणु पुद्गल, 6. शब्द, 7. गन्ध / जिनको केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है वे अर्हन्, जिन, केवलो इन पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जानते देखते हैं / जैसे 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. शरीरमुक्त जीव, 5. परमाणुपुद्गल, 6. शब्द, 7. गन्ध (78) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org