________________ [581 सप्तम स्थान] सात स्थानों (कारणों) से केवली जाना जाता है। जैसे१. जो प्राणियों का घात नहीं करता है। 2. जो मृषा नहीं बोलता है। 3. जो अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करता है। 4. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का आस्वादन नहीं लेता है। 5. जो पूजा और सत्कार का अनुमोदन नहीं करता है। 6. जो 'यह सावध है' ऐसा कह कर उसका प्रतिसेवन नहीं करता है। 7. जो जैसा कहता है, वैसा करता है (26) / गोत्र-सूत्र ३०-सत्त मूलगोता पण्णत्ता, तं जहा-कासवा, गोतमा, वच्छा, कोच्छा, कोसिश्रा, मंडवा, वासिट्ठा। मूल गोत्र (एक पुरुष से उत्पन्न हुई वंश-परम्परा) सात कहे गये हैं। जैसे१. काश्यप, 2. गौतम, 3. वत्स, 4. कुत्स, 5. कौशिक, 6. माण्डव, 7. वाशिष्ठ (30) / विवरण-किसी एक महापुरुष से उत्पन्न हुई वंश-परम्परा को गोत्र कहते हैं। प्रारम्भ में ये सूत्रोक्त सात मूल गोत्र थे / कालान्तर में उन्हीं से अनेक उत्तर गोत्र भी उत्पन्न हो गये। संस्कृतटीका के अनुसार सातों मूल गोत्रों का परिचय इस प्रकार है 1. काश्यपगोत्र-मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि जिन को छोड़कर शेष बाईस तीर्थंकर, सभी चक्रवर्ती (क्षत्रिय), सातवें से ग्यारहवें गणधर (ब्राह्मण) और जम्बूस्वामी (वैश्य) आदि, ये सभी काश्यप गोत्रीय थे। 2. गौतम गोत्र—मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि जिन, नारायण और पद्म को छोड़कर सभी बलदेव-वासुदेव, तथा इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति, ये तीन गणधर गौतम गोत्रीय थे। 3. वत्सगोत्र-दशवकालिक के रचयिता शय्यम्भव आदि वत्सगोत्रीय थे। 4. कौत्स--शिवभूति आदि कौत्स गोत्रीय थे। 5. कौशिक गोत्र-षडुलुक (रोहगुप्त) आदि कौशिक गोत्रीय थे / 6, माण्डव्य गोत्र-मण्डुऋषिके वंशज माण्डव्य गोत्रीय कहलाये। 7. वाशिष्ठ गोत्र-~-वशिष्ठ ऋषि के वंशज वाशिष्ठ गोत्रीय कहे जाते हैं / तथा छठे गणधर और आर्य सुहस्ती आदि को भी वाशिष्ठ गोत्रीय कहा गया है। ३१–जे कासवा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा---ते कासवा, ते संडिल्ला, ते गोला, ते वाला, ते मुजइणो, ते पवतिणो, ते वरिसकण्हा / जो काश्यप गोत्रीय हैं, वे सात प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. काश्यप, 2. शाण्डिल्य, 3. गोल, 4. बाल, 5. मौज्जकी, 6. पर्वती, 7. वर्षकृष्ण (31) / ३२-जे गोतमा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा ते गोतमा, ते गग्गा, ते भारदा, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खरामा, ते उदत्ताभा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org