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________________ सप्तम स्थान ] [ 575 प्राचार्य और उपाध्याय के लिए गण में सात संग्रहस्थान (ज्ञाता या शिष्यादि के संग्रह के कारण) कहे गये हैं / जैसे 1. आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा एवं धारणा का सम्यक प्रयोग करें। 2. प्राचार्य और उपाध्याय गण में यथारात्तिक (दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े के क्रम से) ____ कृतिकर्म (वन्दनादि) का सम्यक् प्रयोग करें। 3. प्राचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनको यथाकाल गण को सम्यक् वाचना देखें। 4. आचार्य और उपाध्याय गण के ग्लान (रुग्ण) और शैक्ष (नवदीक्षित) साधुओं की सम्यक वैयावृत्त्य के लिए सदा सावधान रहें। 5. आचार्य और उपाध्याय गण को पूछ कर अन्यत्र विहार करें, उसे पूछे विना विहार न करें। 6. प्राचार्य और उपाध्याय गण के लिए अनुपलब्ध उपकरणों को सम्यक् प्रकार से उपलब्ध करें। 7. प्राचार्य और उपाध्याय गण में पूर्व-उपलब्ध उपकरणों का सम्यक् प्रकार से संरक्षण एवं संगोपन करें, असम्यक प्रकार से--विधि का अतिक्रमण कर संरक्षण और संगोपन न करें (6) / असंग्रहस्थान-सूत्र ७-आयरिय-उवज्झायस्स गं गणंसि सत्त असंगहठाणा यण्णत्ता, तं जहा१. प्रारिय-उवज्झाए णं गणणि पाणं वा धारणं वा णो सम्म पउंजित्ता भवति / 2. (प्रायरिय-उवज्झाए णं गणंसि प्राधारातिणियाए कितिकम्मं जो सम्म पउंजिता भवति / 3. आयरिय-उवज्झाए णं गणसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवा इत्ता भवति / 4. पायरिय-उवज्झाए णं गणसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममभुद्वित्ता भवति / 5. पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि प्रणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो प्राच्छ्यिचारी। 6. प्रायरिय-उवज्झाए णं गणंसि अणुप्पण्णाई उवगरणाई णो सम्म उप्पाइत्ता भवति / 7. पायरिय-उवज्झाए णं गणसि) पच्चुप्पण्णाणं उवगरणाणं णो सम्म सारक्खेत्ता संगोंवेत्ता भवति / प्राचार्य और उपाध्याय के लिए गण में सात असंग्रहस्थान कहे गये हैं। जैसे१. आचार्य और उपाध्याय गण में प्राज्ञा एवं धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें / 2. आचार्य और उपाध्याय गरण में यथारात्निक कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग न करें। 3. प्राचार्य और उपाध्याय जिन-जिन-सूत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी यथाकाल गण को सम्यक वाचना न देवें / 4. आचार्य और उपाध्याय ग्लान एवं शैक्ष साधुओं की यथोचित वैयावृत्त्य के लिए सदा सावधान न रहें / 5. आचार्य और उपाध्याय गण को पूछे विना अन्यत्र विहार करें, उसे पूछ कर विहार न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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