________________ 574 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 6. सम्मूच्छिम-तदनुकूल परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न होने वाले लट आदि / 7. उद्भिज्ज-भूमि-भेद से उत्पन्न होने वाले खंजनक आदि जीव (3) / विवरण-जीवों के उत्पन्न होने के स्थान-विशेषों को योनि कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में जिन सात प्रकार की योनियों का संग्रह किया है, उनमें से आदि की तीन योनियाँ गर्भ जन्म की आधार हैं। शेष रसज आदि चार योनियाँ सम्मूच्छिम जन्म की आधारभूत हैं। देव-नारकों के उपपात जन्म की आधारभूत योनियों का यहाँ संग्रह नहीं किया गया है। गति-आगति-सूत्र ४-अंडगा सत्तगतिया सत्तागतिया पण्णता, तं जहा-अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे अंडगेहितो वा, पोतजेहिंतो वा, (जराउजेहितो वा, रसहितो वा, संसेयरोहितो वा, संमुच्छिमेहितो वा,) उब्भिगे. हिंतो वा, उववज्जेज्जा। सच्चेव णं से अंडए अंडगत्तं विष्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए वा, (जराउजताए वा, रसजत्ताए वा, संसेयगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए वा), उब्भिगत्ताए वा गच्छेज्जा। अण्डज जीव सप्तगतिक और सप्त प्रागतिक कहे गये हैं। जैसे अण्डज जीव अण्डजों में उत्पन्न होता हुआ अण्डजों से या पोतजों से या जरायुजों से, या रसजों से या संस्वेदजों से या सम्मच्छिमों से या उदभिज्जों से आकर उत्पन्न होता है। __ वही अण्डज जीव अण्डज योनि को छोड़ता हुआ अण्डज रूप से या पोतज रूप से या जरायुज रूप से या रसज रूप से या संस्वेदज रूप से या समूच्छिम रूप से या उद्भिज्ज रूप से जाता है। अर्थात् सातों योनियों में उत्पन्न हो सकता है। ५-पोतगा सत्तगतिया सत्तागतिया एवं चेव / सत्तहवि गतिरागती भाणियव्वा जाव उब्भियत्ति। पोतज जीव सप्तगतिक और सप्त आगतिक कहे गये हैं। इसी प्रकार उद्भिज्ज तक सातों ही योनिवाले जीवों की सातों ही गति और सातों ही प्रागति जाननी चाहिए (5) / संग्रहस्थान-सूत्र ६-मारिय-उवज्झायस्स णं गणंसि सत्त संगहठाणा पण्णत्ता, तं जहा१. प्रायरिय-उवज्झाए णं गणंसि पाणं वा धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवति / पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि आधारातिणियाए कितिकम्म सम्म पउंजित्ता भवति / 3. पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले सम्ममणुष्पवाइत्ता भवति / 4. पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं सम्ममभुट्टित्ता भवति)। 5. पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि प्रापुच्छियचारी यावि भवति, णो प्रणापुच्छियचारी। 6. पायरिय-उवज्झाए णं गणंसि अणुप्पण्णाई उवगरणाइं सम्म उप्पाइत्ता भवति / 7. पायरिय-उबज्झाए णं गर्णसिं पुव्वुप्पण्णाई उवकरणाई सम्मं सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति, णो असम्म सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org