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________________ सप्तम स्थान ] [ 573 अतः सभी को होता है। उसे भवप्रत्यय कहते हैं। किन्तु संज्ञी मनुष्य और तिर्यचों के तपस्या आदि बाह्य कारण विशेष के मिलने पर ही वह होता है, अन्यथा नहीं। अतः उसे क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में तीन गति के जीवों को होने वाले अवधिज्ञान की चर्चा नहीं की गई है। किन्तु कोई श्रमण-माहन बाल-तप आदि साधना-विशेष करता है, उनमें से किसी-किसी को उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान का वर्णन किया गया है। जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि होता है, उसे जितनी मात्रा में भी यह उत्पन्न होता है, वह उसके उत्पन्न होने पर प्रारम्भिक क्षणों में विस्मित तो अवश्य होता है, किन्तु भ्रमित नहीं होता / एवं उसके पूर्व उसे जितना श्र तज्ञान से छह द्रव्य, सप्त तत्त्व और नव पदार्थों का परिज्ञान था, उस अर्हत्प्रज्ञप्त तत्त्व पर श्रद्धा रखता हुआ यह जानता है कि मेरे क्षयोपशम के अनुसार इतनी सीमा या मर्यादा वाला यह अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हया है, अत: मैं उस सीमित क्षेत्रवर्ती पदार्थों को जानता देखता हूँ। किन्तु यह लोक और उसमें रहने वाले पदार्थ असीम हैं, अतः उन्हें जिन-प्ररूपित पागम के अनुसार ही जानता है। किन्तु जो श्रमण-माहन मिथ्यादष्टि होते हैं, उनके बालतप, संयम-साधना आदि के द्वारा जब जितने क्षेत्रवाला अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तब वे पूर्व श्रद्धान से या तज्ञान से विचलित हो जाते हैं और यह मानने लगते हैं कि जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की सीमा में मुझे यह अतिशायी ज्ञान प्राप्त हुआ है, बस इतना ही संसार है और मुझे जो भी जीव या अजीव दिख रहे हैं, या पदार्थ दिखाई दे रहे हैं, वे इतने ही हैं। इसके विपरीत जो श्रमण-माहन कहते हैं, वह सब मिथ्या है। उनके इस 'लोकाभिगम' या लोक-सम्बन्धी ज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है। टीकाकार ने सातों प्रकार के विभंगज्ञानों को विभंगता या मिथ्यापन का खुलासा करते हुए लिखा है कि पहले प्रकार में विभंगता शेष दिशाओं में लोक निषेध करने के कारण है। दूसरे प्रकार में विभंगता एक दिशा में लोक का निषेध करने से है, तीसरे प्रकार में विभंगता कर्मों के अस्तित्व को अस्वीकार करने से है। चौथे प्रकार में विभंगता जोव को पुद्गल-जनित मानने से है। पाँचवें प्रकार में विभंगता देवों की विक्रिया को देख कर उनके शरीर के पुद्गल-जनित होने पर भी उसे पुदगल-निर्मित नहीं मानने से है। छठे प्रकार में विभंगता जीव को रूपी ही मानने से है। तथा सातवें प्रकार में विभंगता पृथिवी आदि चार निकायों के जीवों को नहीं मानने से बताई गई है। मोनिसंग्रह-सूत्र ३--सत्तविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा–अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, संसेयगा, संमुच्छिमा, उभिगा। योनि-संग्रह सात प्रकार का कहा गया है१. अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले पक्षी-सर्प आदि / 2. पोतज-चर्म-आवरण विना उत्पन्न होने वाले हाथी शेर आदि / 3. जरायुज-चर्म-आवरण रूप जरायु (जेर) से उत्पन्न होने वाले मनुष्य, गाय आदि / 4. रसज–कालिक मर्यादा से अतिक्रांत दूध-दही, तेल आदि रसों में उत्पन्न होने वाले जीव / 5. संस्वेदज-संस्वेद (पसीना) से उत्पन्न होने वाले जू, लीख आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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