________________ [ स्थानाङ्गसूत्र भाव छह प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. प्रौदयिक भाव-कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मानादि 21 भाव / 2. औपशमिक भाव-मोह कर्म के उपशम से होने वाले सम्यक्त्वादि 2 भाव / 3. क्षायिक भाव-घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञान-दर्शनादि 6 भाव / 4. क्षायोपशमिक भाव-घातिकर्मों के क्षयोपशम से होने वाले मति-श्रु तज्ञानादि 18 भाव / 5. पारिणामिक भाव—किसी कर्म के उदयादि के विना अनादि से चले आ रहे जीवत्व आदि 3 भाव। 6. सान्निपातिक भाव-उपर्युक्त भावों के संयोग से होने वाले भाव / जैसे—यह मनुष्य औपशमिक सम्यक्त्वी, अवधिज्ञानी और भव्य है। यह औदयिक, औषमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों का संयोगी सान्निपातिक भाव है। ये द्विसंयोगी 10, त्रिसंयोगी 20, चतुःसंयोगी 5 और पंचसंयोगी 1 इस प्रकार सर्व 26 सान्निपाति भाव होते हैं (124) / प्रतिक्रमण-सूत्र १२५–छविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा-उच्चारपडिक्कमणे, पासवणपडिक्कमणे, इत्तरिए, श्रावकहिए, किचिमिच्छा, सोमणतिए / प्रतिक्रमण छह प्रकार का कहा गया है / जैसे१. उच्चार-प्रतिक्रमण-मल-विसर्जन से पश्चात् वापस पाने पर ईर्यापथिको सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। 2. प्रस्रवण-प्रतिक्रमण-मूत्र-विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना / 3. इत्वरिक-प्रतिक्रमण-देवसिक-रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना / 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण-मारणान्तिको संल्लेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण। 5. यत्किञ्चित् मिथ्यादुष्कृत प्रतिक्रमण-साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए __ 'मिक्छा मि दुक्कड' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना / 6. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-दुःस्वप्नादि देखने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण (125) / नक्षत्र-सूत्र १२६–कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते / कृत्तिका नक्षत्र छह तारावाला कहा गया है (126) / १२७-असिलेसाणक्खत्त छत्तारे पण्णत्त / अश्लेषा नक्षत्र छह तारावाला कहा गया है (127) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org