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________________ षष्ठ स्थान ] [567 पापकर्म-सूत्र १२८--जीवा णं छट्ठाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा-पुढविकाइयणिवत्तिए, (ग्राउकाइयणिन्वत्तिए, तेउकाइयणिवत्तिए, वाउकाइयणिव्वत्तिए, वणस्सइकाइयणिव्वत्तिए) तसकायणिवत्तिए। एवं—चिण-उचिण-बंध-उदोर-वेय तह णिज्जरा चेव / जीवों ने छह स्थान निर्वतित कर्मपुद्गलों को पाप कर्म के रूप से भूतकाल में ग्रहण किया था, वर्तमान में ग्रहण करते हैं और भविष्य में ग्रहण करेंगे / यथा 1. पृथ्वीकायनिर्वतित, 2. अप्कायनिर्वतित, 3. तेजस्कायनिर्वतित, 4. वायुकायनिवर्तित, 5. वनस्पतिकायनिर्वतित, 3. सकायनिर्वतित (128) / इसी प्रकार सभी जीवों ने षट्काय-निर्वतित कर्मपुद्गलों का पापकर्म के रूप से उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन, और निर्जरण भूतकाल में किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में करेंगे। पुद्गल-सूत्र १२६-छप्पएसिया तं खंधा अणंता पण्णत्ता। छह प्रदेशी स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं (126) / १३०-छप्पएसोगाढा पोग्गला प्रणंता पण्णत्ता। छह प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (130) / १३१-छसमयद्वितीया पोग्गला प्रणेता पण्णता / छह समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (131) / १३२--छगुणकालगा पोग्गला जाव छगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। छह गुण काले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (132) / इसी प्रकार शेष वर्ग, गन्ध, रस और स्पर्श के छह गुण वाले पुद्गल अनन्त-अनन्त कहे गये हैं। / छठा स्थान समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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