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________________ षष्ठ स्थान ] [556 कल्प (साधु-प्राचार) के छह प्रस्तार (प्रायश्चित्त-रचना के विकल्प) कहे गये हैं / जैसे१. प्राणातिपात-सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला। 2. मृषावाद-सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला। 3. अदत्तादान-सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला / 4. अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने वाला। 5. पुरुषत्त्व-हीनता के आरोपात्मक वचन बोलने वाला। 6. दास होने का आरोपात्मक वचन बोलने वाला (101) / कल्प के इन छह प्रस्तारों को स्थापित कर यदि कोई साधु उन्हें सम्यक् प्रकार से प्रमाणित न कर सके तो वह उस स्थान को प्राप्त होता है, अर्थात् आरोपित दोष के प्रायश्चित्त का भागी होता विवेचन-साध के प्राचार को कल्प कहा जाता है। प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वद्धि को प्रस्तार कहते हैं। प्राणातिपात-विरमण आदि के सम्बन्ध में कोई साधु किसी साधु को झूठा दोष लगावे कि तुमने यह पाप किया है, वह गुरु के सामने यदि सिद्ध नहीं कर पाता है, तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। पुन: वह अपने कथन को सिद्ध करने के लिए ज्यों-ज्यों असत् प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता जाता है। संस्कृत टीकाकार ने इसे एक दृष्टान्त पूर्वक इस प्रकार से स्पष्ट किया है छोटे-बड़े दो साधु गोचरी के लिए नगर में जा रहे थे। मार्ग में किसी मरे हुए मेंढक पर बड़े साधु का पैर पड़ गया। छोटे साधु ने आरोप लगाते हुए कहा-आपने इस मेंढक को मार डाला ! बड़े साधु ने कहा-नहीं, मैंने नहीं मारा है। तब छोटा साधु बोला-आप झूठ कहते हैं, अतः आप मृषाभाषी भी है। इसी प्रकार दोषारोपण करते हुए वह गोचरी से लौट कर गुरु के समीप पाता है। उसके इस प्रकार दोषारोपण करने पर उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पहला प्रायश्चित्तस्थान है। जब वह छोटा साधु गुरु से कहता है कि इन बड़े साधु ने मेंढक को मारा है, तब उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह दूसरा प्रायश्चित्त स्थान है / छोटे साधु के उक्त दोषारोपण करने पर गुरु ने बड़े साधु से पूछा-क्या तुमने मेंढक को मारा है ? वह कहता है-नहीं ! तव आरोप लगाने वाले को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह तीसरा प्रायश्चित्तस्थान है / छोटा साधु पुन: अपनी बात को दोहराता है और बड़ा साधु-पुनः यही कहता है कि मैंने मेंढक को नहीं मारा है। तब उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह चौथा प्रायश्चित्तस्थान है। __ छोटा साधु गुरु से कहता है यदि आपको मेरे कथन पर विश्वास न हो तो आप गहस्थों से पूछ लें। गुरु अन्य विश्वस्त साधुनों को भेजकर पूछताछ कराते हैं। तब उस छोटे साध को षट लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह पाँचवाँ प्रायश्चित्तस्थान है। उन भेजे गये साधुओं के पूछने पर गृहस्थ कहते हैं कि हमने उस साधु को मेंढक मारते नहीं देखा है, तब छोटे साधु को षड्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह छठा प्रायश्चित्तस्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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