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________________ 558] [ स्थानाङ्गसूत्र अवधिज्ञान-सूत्र -छविहे ओहिणाणे पण्णत्ते, त जहा–आणुगामिए, अणाणुगामिए, वड्ढमाणए, हायमाणए, पडिवाती, अपडिवाती। अवधिज्ञान छह प्रकार का कहा गया है / जैसे१. प्रानुगामिक, 2. अनानुगामिक, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. प्रतिपाती, 6. अप्रतिपाती। विवेचन---द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अवधि, सीमा या मर्यादा को लिए हुए रूपी पदार्थों को इन्द्रियों और मन की सहायता के विना जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं / उनका विवरण इस प्रकार है-- 1. प्रानुगामिक-जो ज्ञान नेत्र की तरह अपने स्वामी का अनुगमन करता है, अर्थात् स्वामी (अवधिज्ञानी) जहाँ भी जावे उसके साथ रहता है, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं / इस ज्ञान का स्वामी जहाँ भी जाता है, वह अवधिज्ञान के विषयभूत पदार्थों को जानता है। 2. अनानुगामिक-जो ज्ञान अपने स्वामी का अनुगमन नहीं करता, किन्तु जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्वामी के रहने पर अपने विषयभूत पदार्थों को जानता है, उसे अनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। 3. वर्धमान-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद विशुद्धि की वृद्धि से बढ़ता रहता है, वह __ वर्धमान कहलाता है। 4. हीयमान-जो अवधिज्ञान जितने क्षेत्र को जानने वाला उत्पन्न होता है उसके पश्चात् संक्लेश की वृद्धि से उत्तरोत्तर घटता जाता है, वह हीयमान कहलाता है। 5. प्रतिपाती-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है, वह प्रतिपाती कहलाता है / 6. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता, केवलज्ञान को प्राप्ति तक विद्यमान रहता है वह अप्रतिपाती कहलाता है (66) / अवचन-सूत्र १००–णो कप्पइ णिगंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई, वदित्तए, त जहाप्रलियवयणे, होलियवयणे, खिसितवयणे, फरुसवयणे, गारस्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए / निर्ग्रन्थ और निग्रंन्थिों को ये छह अवचन (गहित वचन) बोलना नहीं कल्पता है / जैसे१. अलीक वचन-असत्यवचन / 2. हीलितवचन-अवहेलनायुक्त वचन / 3. खिसितवचन-मर्मवेधी वचन / 4. परुषवचन-कठोर वचन / 5. अगारस्थितवचन-गृहस्थावस्था के सम्बन्ध सूचक वचन / 6. व्यवसित उदीरकवचन----उपशान्त कलह को उभाड़ने वाला वचन (100) / कल्प-प्रस्तार-सूत्र १०१-छ कप्पस्स पत्थारा पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिण्णादाणस्स वायं क्यमाणे, अविरतिवायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे-इच्चेते छ कप्पस्स पत्यारे पत्थारेत्ता सम्ममपडिपूरेमाणे ताणपत्ते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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