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________________ 560] [ स्थानाङ्गसूत्र वे भेजे गये साधु वापस आकर गुरु से कहते हैं कि बड़े साधु ने मेंढक को नहीं मारा है। तब उस छोटे साधु को छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह सातवाँ प्रायश्चित्त स्थान है। फिर भी छोटा साधु कहता है-वे गृहस्थ सच या झूठ बोलते हैं, इसका क्या विश्वास है ? ऐसा कहने पर वह मूल प्रायश्चित्त का भागी होता है। यह आठवाँ प्रायश्चित्त है। फिर भी वह छोटा साधु कहे-ये साधु और गृहस्थ मिले हुए हैं, मैं अकेला रह गया हूँ। ऐसा कहने पर वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का भागी होता है / यह नौवां प्रायश्चित्त है। इतने पर भी यह छोटा साधु अपनी बात को पकड़े हुए कहे-आप सब जिन-शासन से बाहर हो, सब मिले हुए हो! तब वह पारांचिक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है। यह दशवां प्रायश्चित्त स्थान है। इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों अपने झूठे दोषारोपण को सत्य सिद्ध करने का असत् प्रयास करता है, त्यों-त्यों उसका प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है / __ प्राणातिपात के दोषारोपण पर प्रायश्चित्त-वृद्धि का जो क्रम है वही मृषावाद, अदत्तादान आदि के दोषारोपण पर भी जानना चाहिए। पलिमन्थु-सूत्र १०२–छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता, त जहा–कोकुइते संजमस्स पलिमय, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खुलोलुए ईरियावहियाए पलिमंथू, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथ, इच्छालोभिते मोत्तिमग्गस्स पलिमंथू, मिज्जाणिदाणकरणे मोक्खमग्गम्स पलिमंथ, सव्वत्थ भगवता अणिदाणता पसत्था। कल्प (साधु-आचार) के छह पलिमन्थ (विधातक) कहे गये हैं। जैसे१. कौकुचित-चपलता करने वाला संयम का पलिमन्थ है। 2. मौखरिक-मुखरता या बकवाद करने वाला सत्यवचन का पलिमन्थु है / 3. चार्लोलुप-नेत्र के विषय में प्रासक्त ईपिथिक का पलिमन्थ है। 4. तितिणक-चिड़चिड़े स्वभाव वाला एषणा-गोचरी का पलिमन्थ है। 5. इच्छालोभिक–अतिलोभी निष्परिग्रह रूप मुक्तिमार्ग का पलिमन्थ है। 6. मिथ्या निदानकरण—चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के भोगों का निदान करने वाला मोक्ष मार्ग का पलिमन्थु है।। भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है (102) / कल्पस्थिति-सूत्र १०३-छव्विहा कप्पट्टितो पण्णत्ता, तं जहा—सामाइयकप्पट्टितो, छेप्रोवट्ठावणियकप्पट्टितो, णिविसमाणकप्पट्टिती, णिन्विट्ठकप्पद्विती, जिणकप्पट्टिती, थेरकप्पद्विती। कल्प की स्थिति छह प्रकार की कही गई है / जैसे१. सामायिककल्पस्थिति-सर्व सावद्ययोग की निवृत्तिरूप सामायिक संयम-सम्बन्धी मर्यादा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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