________________ [ स्थानाङ्गसूत्र प्रतिक्रमण पांच प्रकार का कहा गया है। जैसे१. पानवद्वार-प्रतिक्रमण-कर्मास्रव के द्वार हिंसादि से निवर्तन / 2. मिथ्यात्व-प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व से पुनःसम्यक्त्व में प्राना। 3. कषाय-प्रतिन.मण-कषायों से निवृत्त होना। 4. योग-प्रतिक्रमण-मन वचन काय को अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना / 5. भाव-प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व आदि का कृत, कारित, अनुमोदना से त्यागकर शुद्धभाव से __सम्यक्त्व में स्थिर रहना (222) / सूत्र-वाचना-सूत्र 223- पंचहि ठाणेहि सुत्तं वाएज्जा, त जहा--संगहट्ठयाए, उवम्गहट्ठयाए, णिज्जरट्ठयाए, सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्टयाए / पाँच कारणों से सूत्र की वाचना देनी चाहिये / जैसे१. संग्रह के लिए-शिष्यों को श्रुत-सम्पन्न बनाने के लिए। 2. उपग्रह के लिए भक्त-पान और उपकरणादि प्राप्त करने को योग्यता प्राप्त कराने के लिए। 3. निर्जरा के लिए-कर्मों की निर्जरा के लिए। 4. वाचना देने से मेरा श्रत परिपुष्ट होगा, इस कारण से / 5. श्रु त के पठन-पाठन की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए (223) / २२४-पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा, त जहा----णाणट्टयाए, दसणट्टयाए, चरित्तट्टयाए, बुग्गहविमोयणट्टयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिकटु / पांच कारणों से सूत्र को सीखना चाहिए / जैसे१. ज्ञानार्थ-नये नये तत्त्वों के परिज्ञान के लिए। 2. दर्शनार्थ-श्रद्धान के उत्तरोत्तर पोषण के लिए। 3. चारित्रार्थ-चारित्र की निर्मलता के लिए। 4. व्युद्-ग्रह विमोचनार्थ-दूसरों के दुराग्रह को छुड़ाने के लिए। 5. यथार्थ-भाव-ज्ञानार्थ-सूत्रशिक्षण से मैं यथार्थ भावों को जानू गा, इसलिए / इन पांच कारणों से सूत्र को सीखना चाहिए (224) / कल्प-सूत्र २२५–सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचवण्णा पण्णता, त जहा-किण्हा, (णीला, लोहिता, हालिद्दा), सुक्किल्ला / सौधर्म और ईशान कल्प के विमान पांच वर्ण के कहे गये हैं। जैसे१. कृष्ण, 2. नील, 3. लोहित, 4. हारिद्र, 5. शुक्ल (225) / २२६–सोहम्मोसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचजोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं पण्णत्ता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org