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________________ 514 ] [स्थानाङ्गसूत्र 4. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ के भी दो भेद हैं-उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थ और क्षीणमोहनिर्ग्रन्थ / जो उपशमश्रेणी पर आरूढ होकर सम्पूर्णमोहकर्म का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, उन्हें उपशान्तमोह निर्गन्थ कहते हैं। तथा जो क्षषकश्रेणी करके मोहकर्म का सर्वथा क्षय करके बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं और लघु अन्तर्मुहुर्त के भीतर ही शेष तीन घातिकर्मों का क्षय करने वाले हैं, उन्हें क्षीणमोह निर्ग्रन्थ कहते हैं। 5. स्नातक-निर्ग्रन्थ के भी दो भेद हैं...संयोगीस्नातक जिन और अयोगीस्नातक जिन / सयोगी जिन का काल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। इतने काल तक वे भव्य जीवों को धर्म-देशना करते हुए विचरते रहते हैं। जब उनका प्रायुष्क केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह जाता है, तब वे मनोयोग, वचनयोग और काययोग का निरोध कर के अयोगी स्नातक जिन बनते हैं / अयोगी स्नातक का समय अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पंच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण-कालप्रमाण है। इतने ही समय के भीतर वे चारों अघातिकर्मों का क्षय करके अजर-अमर सिद्ध हो जाते उपधि-सूत्र १९०-कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, त जहा-जंगिए, भंगिए, साणए, पोतिए, तिरीडपट्टए णामं पंचमए / निर्ग्रन्थों और निम्रन्थियों को पाँच प्रकार के वस्त्र रखने और पहनने के लिए कल्पते हैं। जैसे 1. जांगमिक-जंगम जीवों के बालों से बनने वाले कम्बल आदि / 2. भांगिक-अतसी (अलसी) की छाल से बनने वाले वस्त्र / 3. सानिक-सन से बनने वाले वस्त्र / 4. पोतक-कपास बोंडी (रुई) से बनने वाले बस्त्र / 5. तिरीटपट्ट-लोध की छाल से बनने वाले वस्त्र (160) / १९१–कम्पति णिग्गंथाण वा जिग्गंथीण वा पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, त जहा-उण्णिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्चिए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए / निम्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के रजोहरण रखने और धारण करने के लिए कल्पते हैं। जैसे 1. औणिक-भेड़ की ऊन से बने रजोहरण / 2. औष्ट्रिक-ऊंट के बालों से बने रजोहरण / 3. सानिक-सन से बने रजोहरण / 4. पच्चापिच्चिय-बल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया रजोहरण / 5. मुजापिच्चिय-मूज को कूटकर बनाया रजोहरण / निश्रास्थान-सूत्र १९२--धम्मण्णं चरमाणस्स पंच णिस्साट्टाणा पण्णत्ता, त जहा-छक्काया, गणे, राया, माहावती, सरोरं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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