________________ पंचम स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 515 धर्म का प्राचरण करने वाले साधु के लिए पाँच निश्रा (आलम्बन) स्थान कहे हैं। जैसे१ षट्काय 2. गण (श्रमण-संघ) 3. राजा, 4. गृहपति, 5. शरीर / (162) विवेचन---मालम्बन या पाश्रय देने वाले उपकारक को निश्रास्थान कहते हैं / षट्काय को भी निथास्थान कहने का खलासा इस प्रकार है 1. पृथिवी की निश्रा-भूमि पर ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र-विसर्जन आदि / 2. जल को निश्रा-वस्त्र-पक्षालन, तृषा-निवारण, शरीर-शौच आदि / 3. अग्नि की निश्रा-भोजन-पाचन, पानक, प्राचाम आदि / 4 वायु की निश्रा-अचित्त वायु का ग्रहण, श्वासोच्छ्वास आदि / 5. वनस्पति की निश्रा-संस्तारक, पाट, फलक, वस्त्र औषधि, वृक्ष की छाया ग्रादि / 6. त्रस की निश्रा-दूध, दही आदि / / दूसरा निधास्थान गण है / गुरु के परिवार को गण कहते हैं। गण को निश्रा में रहने वाले के सारण---वारण-सत्कार्य में प्रवर्तन और असत्कार्य-निवारण के द्वारा कर्म-निर्जरा होती है, संयम की रक्षा होती है और धर्म की वृद्धि होती है। तीसरा निश्रास्थान राजा है / वह दुष्टों का निग्रह और साधुओं का अनुग्रह करके धर्म के पालन में आलम्बन होता है / चौथा निधास्थान गृहपति है / गृहस्थ ठहरने को स्थान एवं भोजन-पान देकर साधुजनों का आलम्बन होता है। पांचवाँ निधास्थान शरीर है / वह धर्म का प्राद्य या प्रधान साधन कहा गया है। निधि-सूत्र १६३-पंच णिही पण्णत्ता, त जहा-पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही, धण्णणिही। निधियां पाँच प्रकार की कही गई हैं / जैसे१. पुत्रनिधि, 2. मित्रनिधि, 3. शिल्पनिधि, 4. धननिधि, 5. धान्यनिधि (193) / विवेचन--धन आदि के निधान या भंडार को निधि कहते हैं। जैसे संचित निधि समय पर काम आती है, उसी प्रकार पत्र वद्धावस्था में माता-पिता की रक्षा सेवा-शश्रषा करता है। मित्र समय-समय पर उत्तम परामर्श देकर सहायता करता है। शिल्पकला आजीविका का साधन है। धन और धान्य तो साक्षात् सदा ही उपकारक और निर्वाह के कारण हैं। इसलिए इन पाँचों को निधि कहा गया है / शौच-सूत्र 164 --पंचविहे सोए पण्णत्ते, त जहा-पुढविसोए, पाउसोए, तेउसोए, मंतसोए, बंभसोए। शौच पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे - 1. पृथ्वीशौच, 2. जलशौच, 3. तेजःशौच, 4. मंत्रशौच, 5. ब्रह्मशौच (194) / विवेचन-शुद्धि के साधन को शौच कहते हैं। मिट्टी, जल, अग्नि की राख आदि से शुद्धि की जाती है / अतः ये तीनों द्रव्य शौच हैं / मंत्र बोलकर मनः शुद्धि को जाती है और ब्रह्मचर्य को धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org