________________ पंचम स्थान-तृतीय उद्देश] [513 १८८--णियंठे पंचविहे पण्णत्ते, त जहा-पढमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहासुहमणियंठे णामं पंचमे। निर्ग्रन्थ नामक निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. प्रथमसमयनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त प्रथमसमयवर्ती निर्ग्रन्थ / 2. अप्रथमसमयनिग्रंथ-निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त द्वितीयादिसमयवर्ती निग्रंथ / 3. चरमसमयवर्तीनिग्रंथ-निर्ग्रन्थ दशा के अन्तिम समय बाला निर्ग्रन्थ / 4. अचरमसमयवर्ती निर्ग्रन्थ अन्तिम समय के सिवाय शेष समयवर्ती निर्ग्रन्थ / 5. यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ दशा के अन्तर्मुहूर्तकाल में प्रथम या चरम आदि की विवक्षा न करके सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ (188) / १८६-सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा—अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संयुद्धणाणदंसगधरे अरहा जिणे केवली, अपरिस्साई / स्नातक निग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे -- 1. अच्छविस्नातक-काय योग का निरोध करने वाला स्नातक / 2. अशबलस्नातक–निर्दोष चारित्र का धारक स्नातक / 3. अकशिस्नातक-कर्मों का सर्वथा विनाश करने वाला। 4. संशुद्धज्ञान-दर्शनधरस्नातक-विमल केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक अर्हन्त केवली जिन / 5. अपरिश्रावो स्नातक–सम्पूर्ण काययोग का निरोध करने वाले अयोगी जिन (186) / विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के सामान्य रूप से पांच-पाँच भेद बताये गये हैं, किन्तु भगवती सूत्र में, तत्त्वार्थसूत्र की दि० श्वे० टीकाओं में तथा प्रस्तुत स्थानाङ्गसूत्र की संस्कृत टीका में आदि के तीन निर्ग्रन्थों के दो-दो भेद और बताये गये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. पुलाक के दो भेद हैं-लब्धिपुलाक और प्रतिसेवनापुलाक / तपस्या-विशेष से प्राप्त लब्धि का संघ की सुरक्षा के लिए प्रयोग करने वाले पुलाक साधु को लब्धिपुलाक कहते हैं / ज्ञानदर्शनादि की विराधना करनेवाले को प्रतिसेवनापुलाक कहते हैं / 2. बकुश के भी दो भेद हैं --शरीर-बकुश और उपकरण-बकुश / अपने शरीर के हाथ, पैर, मुख आदि को पानी से धो-धोकर स्वच्छ रखने वाले, कान, आँख, नाक ग्रादि का कान-खुरचनी, अंगुली आदि से मल निकालने वाले, दांतों को साफ रखने और केशों का संस्कार करने वाले साधु को शरीर-बकुश कहते हैं / पात्र, वस्त्र, राजोहरण आदि को अकाल में ही धोने वाले, पात्रों पर तेल, लेप आदि कर-कर के उन्हें सुन्दर बनाने वाले साधु को उपकरण-बकुश कहते हैं। 3. कुशील निर्गन्थ के भी दो भेद हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील / उत्तर गुणों में अर्थात्-पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह आदि में दोष लगाने वाले साधु को प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं। संज्वलन-कषाय के उदय-बश क्रोधादि कषायों से अभिभूत होने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org