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________________ 462 ] [ स्थानाङ्गसूत्र प्रश्न-हे भगवन् ! आगम ही जिनका बल है ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस विषय में क्या कहा है ? उत्तर हे आयुष्मान् श्रमणो! इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहाँ उसका अनिश्रितोपाश्रित-मध्यस्थ भाव से--- सम्यक् व्यवहार करता हुअा श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन-मुमुक्षु व्यक्ति को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इस प्रकार के प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप निर्देश-विशेष को व्यवहार कहते हैं। जिनसे यह व्यवहार चलता है वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेदविवक्षा से व्यवहार कहे जाते हैं / सूत्र-पठित पाँचों व्यवहारों का अर्थ इस प्रकार है 1. आगमव्यवहार-पागम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः' इस निरुक्ति के अनुसार जिस ज्ञानविशेष से पदार्थ जाने जावें, उसे आगम कहते हैं। प्रकृत में केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नवपूर्वी के व्यवहार को 'पागम व्यवहार' कहा गया है। न्यून ज्ञानवाले प्राचार्यों के व्यवहार को श्र त-व्यवहार कहते हैं। 3. आज्ञाव्यवहार-किसी साधु ने किसी दोष-विशेष की प्रतिसेवना की है; अथवा भक्तपान का त्याग कर दिया है और समाधिमरण को धारण कर लिया है, वह अपने जीवनभर की . आलोचना करना चाहता है। गीतार्थ साधु या आचार्य समीप प्रदेश में नहीं हैं, दूर हैं, और उनका आना भी संभव नहीं है। ऐसी दशा में उस साधु के दोषों को गढ या संकेत पदों के द्वारा किसी अन्य साधु के साथ उन दूरवर्ती प्राचार्य या गीतार्थ साधु के समीप भेजा जाता है, तब वे उसके प्रायश्चित्त को गूढ पदों के द्वारा ही उसके साथ भेजते हैं। इस प्रकार गीतार्थ की आज्ञा से जो शुद्धि की जाती है, उसे आज्ञा-व्यवहार कहते हैं। 4. धारणाव्यवहार-गीतार्थ साधु ने पहले किसी को प्रायश्चित्त दिया हो, उसे जो धारण करे, अर्थात् याद रखे। पीछे उसी प्रकार का दोष किसी अन्य के द्वारा होने पर वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा-व्यवहार है। 5. जीतव्यवहार–किसी समय किसी अपराध के लिए आगमादि चार व्यवहारों का अभाव हो, तब तात्कालिक प्राचार्यों के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, उसे जीतव्यवहार कहते हैं / अथवा जिस गच्छ में कारण-विशेष से सूत्रातिरिक्त जो प्रायश्चित्त देने का व्यवहार चल रहा है और जिसका अन्य अनेक महापुरुषों ने अनुसरण किया है, वह जीतव्यवहार कहलाता है।' 1. प्रागम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः—केवलमन: पर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूप:१। तथा शेष श्रतं-प्राचारप्रकल्पादिश्रुतं / नवादिपूर्वाणां श्र तत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेश: केवलवदिति 2 / यदगीतार्थस्य पुरतो गढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं साऽऽज्ञा ? / गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदन्यस्तव तथैव तामेव प्रयुङ क्ते सा धारणा / वैयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेधानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रशितानां धरणं धारणेति 4 / तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या संहननधत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदान यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्त: कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रतितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तितस्तज्जीतमिति 5 // (स्थानाङ्गमूत्रवृत्तिः, पत्र 302) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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