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________________ पंचम स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 463 सुप्त-जागर-सूत्र १२५-संजयमणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा--सद्दा, (रूवा, गंधा, रसा), सोते हुए संयत मनुष्यों के पांच जागर कहे गये हैं / जैसे१. शब्द 2. रूप 3. गन्ध 4. रस 5. स्पर्श (125) / १२६-संजतमणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पण्णता, तं जहा-सद्दा, (रूवा, गंधा, रसा), फासा। जागते हुए संयत मनुष्यों के पांच सुप्त कहे गये हैं / जैसे१. शब्द 2. रूप 3. गन्ध 4. रस 5. स्पर्श (126) / १२७–असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा--सद्दा, (रूवा, गंधा, रसा), फासा / सोते हुए या जागते हुए असंयत मनुष्यों के पांच जागर कहे गये हैं। जैसे१. शब्द 2. रूप 3. गन्ध 4. रस 5. स्पर्श (127) / विवेचन-सोते हुए संयमी मनुष्यों की पांचों इन्द्रियां अपने विषयभूत शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में स्वतंत्र रूप से प्रवृत्त रहती हैं, अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करती रहती हैअपने विषय में जागृत रहती है, इसीलिए शब्दादिक को जागर कहा गया है। सोती दशा में संयत के प्रमाद का सद्भाव होने से वे शब्दादिक कर्म-बन्ध के कारण होते हैं। इसके विपरीत जागते हुए संयत मनुष्य के प्रमाद का अभाव होने से वे शब्दादिक कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं, अतः जागते हुए संयत के शब्दादिक को सुप्त के समान होने से सुप्त कहा गया है। किन्तु असंयत मनुष्य चाहे सो रहा हो, चाहे जाग रहा हो, दोनों ही अवस्थानों में प्रमाद का सद्भाव पाये जाने से उसके शब्दादिक को जागृत ही कहा गया है, क्योंकि दोनों ही दशा में उसके प्रमाद के कारण कर्मबन्ध होता रहता है। रज-आदान-वमन-सूत्र १२८-पंचहि ठाणेहि जीवा रयं प्रादिज्जति, तं जहा-पाणातिवातेणं, (मुसावाएणं, अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं), परिग्गहेणं / पाँच कारणों से जीव कर्म-रज को ग्रहण करते हैं / जैसे१. प्राणातिपात से 2. मृषावाद से 3. अदत्तादान से 4. मैथुनसेवन से 5. परिग्रह से (128) / १२६-पंचहि ठाणेहि जीवा रयं वमंति, तं जहा-पाणातिवातवेरमणेणं, (भुसावायवेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरमणेणं, मेहुणवेरमणेणं), परिगहवेरमणेणं / / पाँच कारणों से जीव कर्म-रज को वमन करते हैं / जैसे१. प्राणातिपात-विरमण से 2. मृषावाद-विरमण से 3. अदत्तादान-विरमण से 4. मैथुन-विरमण से 5. परिग्रह-विरमण से (126) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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