________________ 488] [स्थानाङ्गसूत्र 2. (दित्तचित्ते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए सचेलियाहि णिगंथोहि सद्धि संवसमाणे जातिक्कमति।। 3. जक्खाइट्ठ समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहि सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति / 4. उम्मायपत्ते समणे णिग्गथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए सचेलियाहि णिगंथोहिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति / ) 5. णिग्गंथीपवाइयए समणे णिग्गंथेहि अविज्जमाणेहिं अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहि सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति / पाँच कारणों से अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ सचेलक निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है / जैसे 1. शोक आदि से विक्षिप्तचित्त कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेलक निग्रं न्थियों के साथ रहता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। 2. हर्षातिरेक से दप्तचित्त कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है / 3. यक्षाविष्ट कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्गन्थियों के साथ रहता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है / 4. वायु के प्रकोपादि से उन्माद को प्राप्त कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्गन्थियों के साथ रहता हुमा भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नही करता है। 5. निर्ग्रन्थियों के द्वारा प्रवाजित (दीक्षित) अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्गन्थियों के साथ रहता हुआ भगवान की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। आस्त्रव-सत्र १०६-पंच पासवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरतो, पमादो, कसाया, जोगा। प्रास्त्रव के पांच द्वार (कारण) कहे गये हैं१. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय, 5. योग (106) / ११०–पंच संवरदारा पण्णता, तं जहा–संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं प्रजोगित्तं / संवर के पांच द्वार कहे गये हैं। जैसे 1. सम्यक्त्व, 2. विरति, 3. अप्रमाद, 4. अकषायिता, 5. अयोगिता (110) / दंड-सूत्र १११-पंच दंडा पण्णत्ता, तं जहा--प्रट्ठादंडे, प्रणट्ठादंडे, हिंसादंडे अकस्मादंडे, दिट्ठीविष्परियासियादंडे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org