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________________ पंचम स्थान--द्वितीय उद्देश] [487 4. प्रामोसगा दीसंति, ते इच्छंति णिग्गंथोनो चीवरपडियाए पडिगाहित्तए, तत्थेगो ठाणं __ वा (सेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमति / 5. जुवाणा दोसंति, ते इच्छंति णिग्गंथीयो मेहुणपडियाए पडिगाहित्तए, तत्थेगो ठाणं वा (सेज्ज वा मिसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमति / इच्चेतेहिं पंचहि ठाणेहि (णिग्गंथा णिग्गंथीयो य एगतो ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमंति। पाँच कारणों से निग्रन्थ और निर्गन्थियाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं / जैसे 1. यदि कदाचित कुछ निर्गन्थ और निर्गन्थियाँ किसी बड़ी भारी, ग्राम-शून्य, आवागमनरहित, लम्बे मार्ग वाली अटवी (वनस्थली) में अनुप्रविष्ट हो जावें, तो वहाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 2. यदि कुछ निर्ग्रन्थ या निग्रन्थियाँ किसी ग्राम में, नगर में, खेट में, कर्वट में, मडम्ब में, पत्तन में, आकर में, द्रोणमुख में, निगम में, आश्रम में, सन्निवेश में अथवा राजधानी में पहुंचें, वहाँ दोनों में से किसी एक वर्ग को उपाश्रय मिला और एक को नहीं मिला, तो वे एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं / 3. यदि कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ नागकुमार के प्रावास में या सुपर्णकुमार के (या किसी अन्य देव के) आवास में निवास के लिए एक साथ पहुंचे तो वहाँ अतिशून्यता से, या अति जनबहुलता आदि कारण से निर्गन्थियों की रक्षा के लिए एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं / 4. (यदि कहीं अरक्षित स्थान पर निर्ग्रन्थियाँ ठहरी हों, और वहाँ) चोर-लुटेरे दिखाई देवें, वे निर्गन्थियों के वस्त्रों को चराना चाहते हों तो वहाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 5. (यदि किसी स्थान पर निर्ग्रन्थियाँ ठहरी हों, और वहाँ पर) गुडे युवक दिखाई देवें, वे निर्ग्रन्थियों के साथ मैथुन की इच्छा से उन्हें पकड़ना चाहते हों, तो वहाँ निर्गन्थ और निर्ग्रन्थियाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। इन पाँच कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं (107) / १०८-पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गथे अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहि सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति, तं जहा 1. खित्तचित्ते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहि अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथोहिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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