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________________ 478] [ स्थानाङ्गसूत्र सहेतुकमरण छद्मस्थमरण कहलाता है। देशप्रत्यज्ञज्ञानी का सहेतुकमरण भी छद्मस्थमरण कहा जाता है / सकलप्रत्यक्षज्ञानी सर्वज्ञ का अहेतुक मरण केवलि-मरण कहा जाता है। संस्कृत टीकाकार श्री अभयदेव सूरि कहते हैं कि हमने उक्त सूत्रों का यह अर्थ भगवतीसूत्र के पंचम शतक के सप्तम उद्देशक की चूणि के अनुसार लिखा है, जो कि सूत्रों के पदों की गमनिका मात्र है।' इन सूत्रों का वास्तविक अर्थ तो बहुश्रु त प्राचार्य ही जानते हैं / अनुत्तर-सूत्र ८३-केवलिस्स णं पंच प्रणुत्तरा पण्णत्ता, तं जहा-प्रणुत्तरे जाणे, प्रणुत्तरे दसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, प्रणुत्तरे वीरिए / केवली के पांच स्थान अनुत्तर (सर्वोत्तम अनुपम) कहे गये हैं। जैसे-- 1. अनुत्तर ज्ञान, 2. अनुत्तर दर्शन 3. अनुत्तर चारित्र, 4. अनुत्तर तप, ' 5. अनुत्तर वीर्य (83) / विवेचन-चार घातिकर्मों का क्षय करने वाले केवली होते हैं। इनमें से ज्ञानावरणकर्म के क्षय से अनुत्तर ज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनुत्तरदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनुत्तर चरित्र और तप, तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनुत्तर वीर्य प्राप्त होता है / पंच-कल्याण-सूत्र ८४–पउमप्पहे णं अरहा पंचचित्ते हुत्था, तं जहा--१. चित्ताहिं चुते चइत्ता गम्भं वक्कते। 2. चित्ताहि जाते। 3. चित्ताहि मुडे भवित्ता अगाराओ प्रणगारितं पव्वइए। 4. चित्ताहि अणते अणुत्तरे णिवाघाए गिरावरणे कसिणे परिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे। 5. चित्ताहि परिणिन्ते। पद्मप्रभ तीर्थंकर के पंच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए / जैसे१. चित्रा नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। 2. चित्रा नक्षत्र में जन्म हुआ। 3. चित्रा नक्षत्र में मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवाजित हुए। 4. चित्रा नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण, परिपूर्ण केवलवर ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ। 5. चित्रा नक्षत्र में परिनिर्वृत हुए-निर्वाणपद पाया (84) / ८५-पुपफदंते णं अरहा पंचमूले हुत्था, तं जहा--मूलेणं चते चइत्ता गम्भं वक्ते / पुष्पदन्त तीर्थंकर के पांच कल्याणक मूल नक्षत्र में हुए / जैसे१. 'पंच हेऊ' इत्यादि सूत्रनवकम / तत्र भगवतीपञ्चमशतसप्तमोद्देशकचूण्यं नुसारेण किमपि लिख्यते / (स्थानाङ्ग सटीक, पृ. 291 A) 2. गमनिकामात्रमेतत् / तत्त्वं तु बहुश्रु ता विदन्तीति / (स्थानाङ्ग सटीक, पृ. 292 A) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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