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________________ 472 ] [स्थानाङ्ग सूत्र 1. उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते / तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रु भति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणच्छिदति वा विच्छिदति वा मिदति वा प्रबहरति वा।। 2. जक्खाइट्ठ खलु अयं पुरिसे। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव प्रवहरति (अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछति वा बंधेति वा भति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा ति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणमच्छिंदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा) प्रवहरति वा / 3. ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति / तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा . तहेव जाव अवहरति (अवहसति वा णिच्छोडति वा जिभंछेति वा बंधेति वा रु भति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा ऐति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणच्छिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा) अवहरति वा / 4. ममं च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स प्रणधियासमाणस्स कि ___ मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति / 5. ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव (खममाणस्स तितिक्खमाणस्स) अहियासेमाणस्स कि ___ मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति / इच्चेतेहि पंचहि ठाहिं छउमत्थे उदिण्णे परिसहोवसगे सम्म सहेज्जा जाव (खमेज्जा तितिक्खेज्जा) अहियासेज्जा। पांच कारणों से छमस्थ पुरुष उदीर्ण (उदय या उदीरणा को प्राप्त) परीषहों और उपसर्गों को सम्यक्-अविचल भाव से सहता है, क्षान्ति रखता है, तितिक्षा रखता है, और उनसे प्रभावित नहीं होता है / जैसे 1. यह पुरुष निश्चय से उदीर्णकर्मा है, इसलिए यह उन्मत्तक (पागल) जैसा हो रहा है। और इसी कारण यह मुझ पर आक्रोश करता है या मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की धमकी देता है, या मेरी निर्भत्सना करता है, या मुझे बांधता है, या रोकता है, या छविच्छेद (अंग का छेदन) करता है, या पमार (मूच्छित) करता है, या उपद्रत करता है, वस्त्र या पात्र या कम्बल या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन करता है, या अपहरण करता है। 2. यह पुरुष निश्चय से यक्षाविष्ट (भूत-प्रेतादि से प्रेरित) है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है, या मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की धमकी देता है, या मेरी निर्भत्सना करता है, या मुझे बांधता है, या रोकता है, या छविच्छेद करता है, या मूच्छित करता है, या उपद्रत करता है, वस्त्र या पात्र या कम्बल या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन करता है, या अपहरण करता है / 3. मेरे इस भव में वेदन करने के योग्य कर्म उदय में आ रहा है, इसलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की धमकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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