________________ [ 471 पंचम स्थान-प्रथम उद्देश ] देवराज देवेन्द्र शक्र की अन्तरंग परिषद् के परिषद्-देवों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है (68) / 66 ईसाणस्स णं देविदस्स देवरको अभंतरपरिसाए देवोणं पंच पलिग्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। देवराज देवेन्द्र ईशान की अन्तरंग परिषद् की देवियों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है (66) / प्रतिघात-सूत्र ७०-पंचविहा पडिहा पणत्ता, त जहा--गतिपडिहा, ठितिपडिहा, बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बल-वीरिय-पुरिसयार-परक्कमपडिहा / प्रतिघात (अवरोध या स्खलन) पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. गति-प्रतिघात-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा शुभगति का अवरोध / 2. स्थिति-प्रतिघात-उदीरणा के द्वारा कर्मस्थिति का अल्पीकरण / 3. बन्धन-प्रतिघात---शुभ औदारिक शरोर-बन्धनादि की प्राप्ति का अवरोध / 4. भोग-प्रतिघात-भोग्य सामग्री के भोगने का अवरोध / 5. बल, वीर्य, पुरस्कार और पराक्रम की प्राप्ति का अवरोध (70) / आजीव-सूत्र ७१-पंचविधे प्राजीवे पण्णत्ते, त जहा–जातिप्राजीवे, कुलाजोवे, कम्माजीवे, सिप्पाजीवे, लिंगाजीवे। आजीवक (आजीविका करने वाले पुरुष) पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. जात्याजीवक-अपनी ब्राह्मणादि जाति बताकर आजीविका करने वाला। 2. कुलाजीवक-अपना उग्रकुल प्रादि बताकर आजीविका करने वाला। 3. कर्माजीवक-कृषि आदि से आजीविका करने वाला। 4. शिल्पाजीवक-शिल्प आदि कला से आजीविका करने वाला / 5. लिंगाजीवक—साधुवेष आदि धारण कर आजीविका करने वाला (71) / राजचिह्न-सूत्र ७२----पंच रायककुधा पण्णत्ता, त जहा-खग्गं, छत्तं, उप्फेसं, पाणहाश्रो, वालवीअणे / राज-चिह्न पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. खङ्ग, 1. छत्र, 3. उष्णीष (मुकुट), 4. उपानह (पाद-रक्षक, जूते) 5. बाल-व्यजन (चंवर) (72) / उदोर्णपरीषहोपसर्ग-सूत्र ७३-पंचहि ठाणेहि छउमत्थे णं उदिण्णे परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेजा अहियासेज्जा, तं जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org