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________________ 464 ] [ स्थानाङ्गसूत्र विवेचन-कलह के कारण को व्युद्-ग्रहस्थान अथवा विग्रहस्थान कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बतलाये गये पांच स्थान प्राचार्य या उपाध्याय के लिए कलह के कारण होते हैं / सूत्र-पठित कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है१. प्राज्ञा - 'हे साधो ! आपको यह करना चाहिए' इस प्रकार के विधेयात्मक आदेश देने को अाज्ञा कहते हैं / अथवा-कोई गातार्थ साधु देशान्तर गया हुआ है / दूसरा गीतार्थ साधु अपने दोष की आलोचना करना चाहता है। वह अगीतार्थ साध के सामने आलोचना कर नहीं सकता / तब वह अगीतार्थ साधु के साथ गढ़ अर्थ वाले वाक्यों-द्वारा अपने दोष का निवेदन देशान्तरवासी गीतार्थ साधु के पास कराता है। ऐसा करने को भी टीकाकार ने 'आज्ञा' कहा है। 2. धारणा-'हे साधो ! आपको ऐसा नहीं करना चाहिए', इस प्रकार निषेधात्मक आदेश को धारणा कहते हैं / अथवा-बार-बार अालोचना के द्वारा प्राप्त प्रायश्चित्त विशेष के अवधारण करने को भी टीकाकार ने धारणा कहा है। 2. यथारानिक कृतिकर्म-दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े साधुओं के कम से वन्दनादि कर्तव्यों के निर्देश करने को यथारात्निक कृतिकर्म कहते हैं। प्राचार्य या उपाध्याय अपने गण के साधुओं को उचित कार्यों के करने का विधान और अनुचित कार्यों का निषेध न करें, तो संघ में कलह उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार यथारानिक साधुओं के विनय-वन्दनादि का संघस्थ साधुओं को निर्देश करना भी उनका आवश्यक कर्त्तव्य है। उसका उल्लंघन होने पर भी कलह हो सकता है / कलह का तीसरा कारण सूत्र-पर्यवजातों की यथाकाल वाचना न देने का है। प्रागम-सूत्रों की वाचना देने का यह क्रम है-तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को आचार-प्रकल्प की, चार वर्ष के दीक्षित को सूत्रकृत की, पांच वर्ष के दीक्षित को दशाशु तस्कन्ध, वृहत्कल्प और व्यवहारसत्र की, पाठ वर्ष के दीक्षित को स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की, दश वर्ष के दीक्षित प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र की, ग्यारह वर्ष के दीक्षित को क्षुल्लकविमानप्रविभक्ति आदि पांच अध्ययनों की, बारह वर्ष के दीक्षित को अरुणोपपात आदि पांच अध्ययनों की, तेरह वर्ष के दीक्षित को उत्थानश्र त आदि चार अध्ययनों की, चौदह वर्ष के दीक्षित को प्राशीविष-भावना की, पन्द्रह वर्ष के दीक्षित को दृष्टिविषभावना की, सोलह वर्ष के दीक्षित को चारण-भावना की, सत्रह वर्ष के दीक्षित को महास्वप्न भावना की, अट्ठारह वर्ष के दीक्षित को तेजोनिसर्ग की, उन्नीस वर्ष के दीक्षित को बारहवें दष्टिवाद अंग की और बीस वर्ष के दीक्षित को सर्वाक्षरसंनिपाती श्रत की वाचना देने का विधान है। जो प्राचार्य या उपाध्याय जितने भी श्रत का पाठी है, उसकी दीक्षापर्याय के अनुसार अपने शिष्यों को यथाकाल वाचना देनी चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है, या व्युत्क्रम से वाचना देता है तो उसके ऊपर पक्षपात का दोषारोपण कर कलह हो सकता है / कलह का चौथा कारण ग्लान और शैक्ष की यथोचित वैयावृत्त्य की सुव्यवस्था न करना है। इससे संघ में अव्यवस्था होती है और पक्षपात का दोषारोपण भी संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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