________________ पंचम स्थान-प्रथम उद्देश ] [465 पांचवाँ कारण साधु-संघ से पूछे बिना अन्यत्र चले जाना आदि है। इससे भी संघ में कलह हो सकता है। अतः प्राचार्य और उपाध्याय को इन पांच कारणों के प्रति सदा जागरूक रहना चाहिए। अभ्युद्ग्रहस्थान-सूत्र ४६—ारियउवझायस्स गं गणंसि पंचाम्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा१. पायरियउवज्झाए गं गणंसि आणं वा धारणं वा सम्म पउंजिता भवति / 2. एवमाधारातिणिताए (प्रायरिय उवज्झाए गं गणंसि) प्राधारातिणिताए सम्म किइकम्म पउंजित्ता भवति / 3. पायरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले सम्म अणुपवाइत्ता भवति / 4. पायरियउवज्झाए गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं सम्मं अब्भुद्वित्ता भवति / 5. पायरियउवज्झाए गणंसि आपुच्छियचारी यावि भवति, णो अणापुच्छियचारी। प्राचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पाँच अब्युद्-ग्रहस्थान (कलह न होने के कारण) कहे गये हैं। जैसे 1. प्राचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्यक् प्रयोग करें। 2. प्राचार्य और उपाध्याय गण में यथारात्निक कृतिकर्म का प्रयोग करें। 3. आचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी यथा समय गण को सम्यक् वाचना दें। 4. प्राचार्य और उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्त्य कराने के लिए सम्यक् प्रकार से सावधान रहें। 5. प्राचार्य और उपाध्याय गण को पूछकर अन्यत्र विहार आदि करें, विना पूछे न करें। उक्त पांच स्थानों का पालन करने वाले प्राचार्य या उपाध्याय के गण में कभी कलह उत्पन्न नहीं होता है (46) / निषद्या-सूत्र ५०–पंच णिसिज्जानो पण्णतामो, तं जहा-उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, प्रद्धपलियंका। निषद्या पांच प्रकार की कही गई है / जैसे१. उत्कुटुका-निषद्या-उत्कुटासन से बैठना (उकडू बैठना)। 2. गोदोहिका-निषद्या-गाय को दुहने के आसन से बैठना / 3. समपाद-पुता-निषद्या-दोनों पैरों और पुतों (पुट्ठों) से भूमि का स्पर्श करके बैठना। 4. पर्यका-निषद्या-पद्मासन से बैठना / 5. अर्ध-पर्यंका-निषद्या-अर्धपद्मासन से बैठना (50) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org